समय की क़िल्लत



नेहा धामा "विजेता "

सोचती हूँ समय की

 क़िल्लत बड़ी हैं 


कहने को तो कुछ 

करने को जिंदगी पड़ी हैं ,

कहते हैं दिन में 

आठ पहर होते हैं ,


पहर तो क्या एक पल

 की भी  फुर्सत नही हैं,

वैसे तो जिंदगी 

बहुत बड़ी हैं ,


पर हर समय

 परछाई बन मौत खड़ी हैं ,

सोचती हूँ माँ ये 

सब कैसे कर लेती थी,


हम भाई - बहनों को 

अकेले सम्भाल लेती थी

थकी होने बावजूद 

मुख पर शिकन नही ,


हमेशा मुस्कुराता ,चमकता

 ,चेहरा देता दिखाई ,

माँ सुबह उठ हाथ की

 चक्की से आटा पिसती ,


सिलबट्टे पर चटनी घिसती

 ,रोटिया   बनाती ,

घर बुहारती , बर्तन ,

कपड़े धोती ,


कुएं से पानी लाती ,

सब समय पर ,ख़ुशी

ख़ुशी कर लेती , 

हमारे लियें समय बचाती,


अपने हाथों से हमे 

नहलाती ,सजा - धजा 

कर बाबू बनाती ,

अपने हाथों खाना खिलाती ,


बीस -तीस लोगों का

 परिवार होता ,

सब एक साथ एक 

घर में मिलजुल कर रहते ,


अब तो अपने बीबी बच्चो

 तक सिमट कर रह गया परिवार ,

तीज ,त्यौहार ,शादी -ब्याह

पर मुश्किल से होती मुलाकात ,


हम लोग आजकल 

 कितने बौखलाए रहते है 

छोटी - छोटी बातों में 

बच्चों पर चिल्लाते हैं 


जिंदगी इतनी उलझ गईं हैं

 कुछ तो डिप्रेशन में चले जाते हैं 

प्यार - मोहब्बत के नाम 

पर रिश्ते - नाते ठगे जाते हैं 


कैसा निर्मम ,निर्मोहि 

स्वार्थी ,मानव हो गया 

लालच के हाथों की 

कठपुतली बन कही खो  गया 


पैसा कमाने की होड़ में 

इतना आगें निकल गया 

कब अपनों को पैरो तले 

कुचल दिया पता भी नही चला 


सोचती हूँ समय की 

किल्लत बड़ी हैं 

अपनों के लिए फुर्सत की 

एक घड़ी नही हैं ।।

 ..............@ 

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