किरण झा
किसी ने मुझको कहां है समझा
सोच के आंखें छलक रही हैं
हसरतों में खोकर ये दुनिया
राहें अपनी भटक रहीं हैं
खुली हैं पलकें थमी हैं सांसें
धड़कनें अब चटक रही हैं
कैसी दो राहें हैं जिंदगी की
चालें सबकी बहक रही हैं
नफरतों का है दौर आया
हर एक आशा सुबक रही है
ना जाने कैसा मुकाम है ये
इंसानियत भी सिसक रही है
कैसी दो राहें हैं जिंदगी की
चालें सबकी बहक रही हैं
सबब उदासी का कैसा आया
"किरण"उम्मीद भी पुलक रही हैं
किरण झा
(रांची, झारखंड)