हिंदी दिवस



वीणा गुप्त 

लो, 

फिर आ गया,

चौदह सितम्बर।

मेरी प्यारी राष्ट्र भाषा का 

तथाकथित जन्मदिन ।

मुझे  समझ नहीं आता,

कि इस दिन मैं

रोऊंँ या मुस्कराऊँ।

हैप्पी हिंदी डे गाऊँ।


कैसी विडंबना है यह, 

कैसा विद्रूप है। 

मेरे प्यारे हिंदुस्तान में 

मेरी ही हिंदी  की स्थिति

बड़ी कुरूप है। 


मात्र चौदह सितम्बर को ही 

इसे याद किया जाता है। 

ठीक वैसे ही जैसे 

श्राद्धपक्ष में 

पितरों का श्राद्ध किया जाता है। 

तो  बंधुवर मेरे देश  में, 

कुछ इसी तरह प्रतिवर्ष 

हिंदी को याद किया जाता है। 


जगह-जगह हिंदी दिवस के

विज्ञापन लगाए जाते हैं। 

अखबार भी इस बाबत 

सुर्खियाँ सजाते हैं।

भारतेंदु की 'निज भाषा उन्नति '

वाली पंक्ति दोहराते हैं। 


अंग्रेजी में शुभकामनाएंँ

ली-दी जाती हैं। 

यह कुछ ही घंटों का खेल है। 

चार दिन की चाँदनी के बाद 

फिर अंँधेरे की रेलम पेल है। 


फिर हिंदी कैसी?कहाँ की?

क्यों? किसकी?

किसे याद आती  है? 

वैसे भी यह हिंदी मेरी

कितनी भोली है, 

तीन सौ चौंसठ दिनों का

अपमान भुला कर,

इस दिन बेमन से मुस्कराती है। 


और करेगी भी क्या? 

सहनशीलता,त्याग,शांति ,

धैर्य, प्रेम  करुणा आदि

अनमोल मूल्य इसी की ,

केवल इसी की तो थाती है। 


सचमुच मेरे देश में 

हिंदी  की अजब कथा है। 

कहने को  राष्ट्र भाषा है 

पर उसकी अपनी ही 

अनकही व्यथा  है।

केवल हिंदी वाले ही

इसे मानते हैं।

कितना ? मत पूछो?

इसके पीछे का

कड़वा सच सब जानते हैं। 


अपनी नई पीढ़ी को हम, 

अंग्रेजी में जगाते, सुलाते

खिलाते- पिलाते हैं। 

'चंदा मामा दूर के'को दूर कर

'जैक एंड जिल 'गवाते हैं। 

उनकी तुतली हिंगलिश पर

बलिहारी जाते हैं। 



हाय! हिंदी के देश में  ही,

हम कितने मजबूर हो गए हैं। 

हिंदी उत्थान के सारे सपने 

कागजों और आंकड़ों  में 

जिंदा होंगे, सच पूछो तो

चकनाचूर हो गए  हैं। 


राष्ट्र-भाषा के नाम पर 

हम विवाद उछालते हैं। 

नारे और झंडों की 

विषैली फसलें उगाते हैं। 

देश की ढेर सारी समृद्ध, 

संपन्न भाषाओं को

धूल चटवाते हैं।



हिंदी से हमें ,

अनपढ़ता की बू आती है।

सूर ,तुलसी ,कबीर ,भले

ही अमर साहित्य-थाती हों,

हमें तो विदेशी भाषा की रचनाएँ 

बिना पढ़े-लिखे ही भाती हैं। 


यूँ तो  हम खूब 

हिंदी चल चित्र देखते हैं 

हिंदी  गाने गाते हैं। 

उन्हें  पसंद  भी  करते  हैं 

पर हिप्पोक्रेसी की इंतहा देखिए,

ये स्वीकारने से साफ मुकरते हैं। 

हमें तो भैया माँ नहीं, 

आंटी से  प्यार है। 

वैसे इसमें  गलत भी क्या है 

परायों को अपना मानना

ही तो हमारे संस्कार हैं। 

घर फूँक तमाशा देखने को

सदा तैयार हैं। 


सच कह दूँ, सुनोगे? 

हिंदी बोलने में,

हमें शर्म आती है। 

विदेशी भाषा के 

अधकचरे ज्ञान से हमारी 

फूल उठती छाती है। 


अरे मेरे देश  के कर्णधारों!

मेरे बच्चों, मेरे होनहारों!

अपनी भाषा से क्यों 

तोड़  लिया  नाता है?

क्यों न निज भाषा  का

सम्मान तुम्हें  भाता है?


हर भाषा भाव प्रकटाती है। 

अपनी देश-संस्कृति को  बताती है। 


विश्व के हर देश को ,

अपनी भाषा  पर अभिमान  है ।

अपनी  ही  भाषाओं के

बलबूते पर छुआ आसमान  है। 

बस हमीं हैं अकेले जो, 

सब जानकर भी अनजान है़। 


बहुत हुआ,अब तो  जागो।

अपने हीन-भाव को त्यागो।

मानसिक-पराधीनता  को छोड़ो। 

देश  गरिमा से नाता जोड़ो। 

भाषाएँ  जो चाहे  सीखो। 

करो ज्ञान-विस्तार अपार।

पर दायित्व निभाओ अपना,

निज भाषा से करो प्यार।


यही देश -प्रगति की सूचक

यही अपना सम्मान है। 

हिंदी अपनी राष्ट्र भाषा है, 

निज अस्मिता की पहचान है।


वीणा गुप्त 

नई दिल्ली

१३/९/२०२१

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