भावना ठाकर "भावु"
वक्त की वादियों से सुनहरी
भोर खिली है तुम्हारे लिए
सूरज के शामियाने से बहते
किरणों ने धूम मचाई है
विस्तृत हो चला है आसमान तुम्हारे लिए
मंज़िलों ने कलियाँ बिछाई है
ज़रा जागो बेटियों
कुछ कर गुज़रने की ऋत आई है।
छोड़े थे तुम्हारी माँ ने अध्याय अधूरे
कदम रखो तुम उस गलियों में
पीछे छूट चुका वो आसमान
वो तारे छिप गए गर्दिश में
गढ़ना है तुझे नया पन्ना
कलम ने स्याही छलकाई है
ज़रा जागो बेटीयों
कुछ कर गुज़रने की ऋत आई है।
आँखें ना मलो पूर्ण खिल जाओ
छोटे से तालाब को समुन्दर लिखना है,
चूल्हे की आग में खुद को न झुलसाओ
न भरमाओ पितृसत्ता की शौख़ी में
हर लेखक ने तुम्हारी शान में रुबाई गाई है
ज़रा जागो बेटियों
कुछ कर गुज़रने की ऋत आई है।
विमर्श का निनाद मंद होते मर रहा है
बेचारगी की फ़ितरत मूड़ने लगी है
चारों दिशाएं हंसकर बुला रही है
उम्मीद की अज़ान उठ रही है
पीनी है तुम्हें आज़ादी की अँजुरी
इक्कीसवीं सदी ने गूँज उठाई है
ज़रा जागो बेटियों
कुछ कर गुज़रने की ऋत आई है।
(भावना ठाकर, बेंगुलूरु)#भावु