दृष्टि विस्तार

 


वीणा गुप्त 

गीत को गुनगुनाने  का, 

कोई आधार तो  होगा। 

जो हर ले उर संताप सब,

कोई उद्गार तो  होगा। 


बैठा रहेगा  कब तलक

दायरों में  घिरा यूं ही

बाहर निकल ,झांक तो 

दृष्टि  विस्तार  तो  होगा। 


तट पर बैठा गिने लहरें

गहराई जानेगा कैसे? 

गोता लगाकर देख तो,

ये सागर पार तो होगा ।


लगेगी ठोकर, गिरेगा।

पड़ेंगे पैर में  छाले। 

सहलाने मत बैठ,चला चल

गति संचार तो  होगा। 


अंधेरा  है  बहुत माना,

सो गई आस की किरन।

जुगनू पकड़ ले एक कोई, 

ज्योति  पसार तो  होगा। 


छल आहत कर रहा,

झूठ  जाल बुन रहा। 

दे उतार नकाब सब, 

सच उजियार तो होगा। 


जम गईं  हैं संवेदना,

मन पाषाण बन गए ।

तू नेह-ताप तो छुआ,

मंजर बहार का  होगा। 


भुला तेरा और मेरा

सब उसका ही पसारा है। 

सुख दुःख सब यहीं पर हैं।

यहीं उद्धार  भी  होगा। 


धरती अंबर मिल रहे गले

उजली सुबह, शाम ढले। 

रंगों  की गगरी छलकती

क्षितिज गुलज़ार तो होगा।


वीणा गुप्त 

नई दिल्ली 

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