रेखा

 . 

डॉ मधुबाला सिन्हा

दरवाजा खुलते ही रजनी बिफर पड़ी....

"दरवाजा तो खोल दिया करो यार...थकी हुई को दरवाजे पर इंतजार करना पड़ता है।पता नहीं क्या होता रहता है कि दरवाजा खोलने में भी इतना समय लगता है",भनभनाती रजनी कमरे में घुस गई ।और पोता को खाना खिलाती सुधा अंदर तक तड़प उठी। 

          इधर कुछ दिनों से वह महसुस कर रही थी रजनी के स्वभाव में होते परिवर्तन को।पर वह हमेशा चुप ही रहती।कभी अनुसाशन के मामले में "कड़ी" समझी जाने वाली सुधा,,आज न जाने क्यों खुद को शांत कर ली है।बहुत कम बोलती है और जो बोलती है,,वह भी बेमानी हो जाता है।शायद रजनी को उसकी आवाज से ही चिढ़ थी।

                  नन्हा पोता ,,उसका हमराज,,उसका दोस्त,,उसकी जिंदगी था।वह हमेशा दादी के इर्द-गिर्द घूमता रहता। कभी-कभी वह भी डांट सुन लेता--क्या सीखते रहते हो ??किसने सिखाया यह उलजुलूल बातें,,आदि आदि,,वह सुनकर भी अनसुना कर देती।जब नियति ने ही उसके हौसले पस्त कर दिए हैं तो वह किसे दोष दे।

                  दरवाजे से चिपका नन्हा मोहित विनती के स्वर में बोल रहा था--मम्मा,, मोहित को तुम्हारे साथ खेलना है,,प्लीज मम्मा,,मुझे अंदर आने दो न...और रजनी इयरफोन लगाए,आराम कर रही थी।कुछ देर बाद,,जब सुधा से न रहा गया तो उसने दरवाजा खुलवाया।

      "क्या है??क्यों पीट रही है दरवाजा??कौनसी आफत आ गयी है??"

"आफत तो नहीं आयी,,हाँ,,यह तीन वर्ष का बच्चा ,,जो दिनभर तुम्हारे घर आने का इंतजार करता है,,तुम्हारे साथ कुछ क्षण बिताना चाहता है,,उसे तो अंदर बुला लो अपने पास।यही कहना था।

           ओफ्फो!एक तो दिनभर बाहर से थक कर आओ और घर में कीट-पीट मचाओ।क्या मुसीबत है,झुंझलाई रजनी,,चीख-सी पड़ी।अब और नहीं बर्दाश्त होता।अब तो हद ही हो गयी,,,मैं बाहर काम करती हूँ,,घर मे रहने वाले क्या समझेंगे कि बाहर काम करने में क्या परेशानी है। बैठे बिठाए पेट जो भर जाता है।आज तो फैसला कर के ही रहूँगी ।चिल्लाती,बोलती दरवाजा फिर से बंद हो गया।

               नन्हा मोहित दादी के गोद में चिपका रहा।जैसे बोलेगा कुछ तो अभी मम्मा की डाँट मिलेगी।सुधा भी चुप थी।मन में हलचल था,पर ऊपर से शांत।असामान्यता ने सामान्यता का आवरण ओढ़ रखा था।

                  घर मे प्रवेश करते ही आकाश को आभास हो चुका था कि शांति के पीछे घहराते सागर का शोर छुपा हुआ है।वह हँसते हुए मोहित के साथ खेलता रहा और चुपके से माँ के मनोभावों को पढ़ता रहा।

                            रविवार का दिन,सभी देर से सोकर उठे।या यह कहें कि दिमाग को संतुलित कर रहे थे। माँ ने कहा -"-बेटा कुछ दिनों के लिए तुम्हारी मौसी के पास जाना चाहती हूँ।वह बीमार है और मुझे बुला भी रही है।"

"हाँ माँ--ले चलूँगा मैं।"

 पापा-आपने क्या बनाया है??

बेटा ,मैंने आपके लिए दादी के साथ पापा का घर बनाया है। हॉल के बीच एक सीधी सफेद रेखा को देख मोहित ने पूछा था ।

 एक तरफ हमलोग रहेंगे और दूसरी तरफ आपकी मम्मा रहेगी।हमलोग घूमने चलेंगे,,खाना खाएँगे,मस्ती करेंगे ।

और मम्मा ???

बेटा-वह बाहर काम करती है न तो उसे तो आराम चाहिए।हमलोग साथ मिलकर आराम करेंगे और मम्मा अकेले ,,क्योंकि उसे तो अकेले रहना है।

 बेटा---

नहीं माँ,,कुछ न कहना।परिवार के साथ कम में भी गुजारा हो जाता है,,जब प्यार और स्नेह की छाया हो तब,,,, पर जब प्यार बोझ बन जाए तो सबकुछ बिखर जाता है।आजके माहौल में खर्च ज्यादा है,,दिखावा बहुत है तो दोनों जनों को नौकरी करनी पड़ती है पूरी करने के लिए,,पर जब बाहर काम करना अहंकार बन जाए,,तो परिवार टूट जाता है,,फिर किसके लिए पैसा कमाना।जिस बच्चे के लिए ही मेहनत कर रहे हैं,उसे ही प्यार न मिले,,जिस माँ के आँचल में पले-बढ़े,,उसे ही सम्मान न मिले,,तो क्या होगा ऐसा पैसा कमाकर और नौकरी कर के।

बोलते हुए आकाश,,जूठे प्लेट को उठाए रसोई की ओर बढ़ गया।पिता के इस बदले तेवर से तीन वर्ष का मोहित भी सहम गया था।

और दरवाजे के ओट से रजनी भी सहमी सी आकाश की ओर देख रही थी।

     ******

इति.....

डॉ मधुबाला सिन्हा

मोतिहारी,चम्पारण

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