यादों के कोमल अंकुर



ज्ञानीचोर

बिखर रहे माला के मोती,

जीवन से लाली छिटक रही।

विहंग कलरव शिशु बाल कल्पना,

अब कठोर धरातल पटक रही।


पीड़ा है जीवन की जड़ता,

सुख भी है बिखर जाने में।

मिटने का दौर आखिरी अब,

नहीं!मजा कहाँ सुख पाने में।


भीगी-भीगी पलकों का सुख,

सिसकी अंधेरी सूनी रातों में।

मिटकर उठना फिर मिटना,

सुख भरा अकेली बातों में।


हैं!क्यों कहूँ ये अश्रु नयन के,

यादों के कोमल अंकुर को।

मिटकर फिर चुपचाप फूटते,

मचल पड़ते फिर मिटने को। 

ज्ञानीचोर


शोधार्थी व कवि साहित्यकार


मु.पो. रघुनाथगढ़, सीकर,राजस्थान।


मो. 9001321438

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