विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर प्रस्तुत एक रचना-
रंजना बरियार
बदल गया इंसान इतना ,
काटी किसी ने टहनी,
किसी ने पैरहन,
ठूँठ बेज़ार तरूवर
खड़ा बेकल बेजान जर्जर!
खुद की साँसो को आख़िर
क्यूँ कर कृत्रिमता के
मोहताज किया!!
बदल गया इंसान इतना ,
स्वार्थ सिद्धि में
सुरसरि को कर मलीन,
खुद को ही मलीन कर डाला!
लघु मार्ग है अपनाकर,
रोगालय, शहरों , उद्योगों
के कचरे नदियों को अर्पण कर,
खुद पावन का स्वाँग रचा,
सहस्र रोगाणु पाल लिया!!
बदल गया इंसान इतना ,
बेकल मतवाली नदियों को,
उदधि आलिंगन में विघ्न डाला,
बेचारी मजबूर नदियों का नीर,
राहों में ही प्राण तज डाला!
नीर का भाग था कितनों की आस,
खग-मनुज- मवेशी कई,
उत्कंठा में हो गये बेज़ार!
बदल गया इंसान इतना ,
गिरि श्रृंखला को भी बख्शा कहाँ,
काट छाँट,तथाकथित विकास किया,
समतल धरा को भी पठारी
नालों से मलीन किया,
खुद तो जोखिम भरा
जीवन अंगिकार किया,
अन्य योनियों का जीवन भी
निस्सार दिया!!