मणि बेन द्विवेदी
वो चिड़ियों का कलरव प्यारा पशुओं का हुंकार
हरित धरा का महका आंचल धरती का श्रृंगार,
वो हरे भरे से वन उपवन वो लिपटी हुई लताएं,
गूंज कहां अब भ्रमर रहा अब कहां कोयलिया गाए।
उछल उछल बहती कब गंगा आंचल मैला कर डाला
झुलस रहा गर्मी से तन मन मानव ये क्या कर डाला।
पशु पक्षी बेहाल हुए हैं तपन से व्याकुल जन जन
प्रकृति से प्रेम करो ना करो धरा का दोहन
जीवन को सुरभित कर लो सारे जग को महकाओ,
धरती कहती चीख चीख री मनु अब वृक्ष लगाओ।
मत काटो जंगल को वन को वन है धरा का गहना,
लता वृक्ष फल फूल सभी का बस इतना है कहना।
काट वृक्ष विकास के नाम पर कंक्रीट का शहर बासाओ।
पछताओगे तुम जल्दी ही री मुरख मनु चेत तो जाओ।
वृक्ष तो जग के ही रक्षक हैं रोग सभी हर लेते
इसके औषधीय गुण को स्वीकार तो तुम कर लेते।
रक्षक के तुम भक्षक बन गए निज स्वार्थ में मानव
विनाश काले बुद्धि विपरीता तभी तो बन गया दानव
हिम खंड जो पिघल पिघल सब तहस नहस कर देगा
क्या हासिल होगा तब तुझको नष्ट सकल जग होगा।
आज अभी को एक संकल्प मिल एक एक वृक्ष लगाओ
धधक रही मासूम धरा को मिल कर सभी बचाओ।
निज गलती का आज सभी परिणाम भुगत रहे लोग
प्राण वायु की कीमत दे कर जीवन पा रहे लोग।
मणि बेन द्विवेदी
वाराणसी उत्तर प्रदेश