ग़ज़ल
जहाँ को जीत लूँ तल्खियों साथ दो तुम अगर।
प्यार बंध बाँध लूँ साथियों साथ दो तुम अगर।
सुन्दर सुमधुर पुरानी यादों में खो जाऊँ,
जेहन की सुकोमल सुधियों साथ दो तुम अगर।
सबकुछ अपने दामन में छुपाकर रख लूँ' मैं,
घर की टूटी सी भित्तियों साथ दो तुम अगर।
जहान की सारी खुशियों साध लूँ एकसाथ,
मेरे जीवन की मस्तियों साथ दो तुम अगर।
जीवनपथ में आए चित्र संजोकर रख लूँ ,
आँखो में उतरती छवियों साथ दो तुम अगर।
जीवन में कुछ भी कभी बिखरने नहीं दूँगी ,
बैठा तालमेल संधियों साथ दो तुम अगर।
कोई बीमारी आने नहीं दूँगी तन में,
शरीर पर आई व्याधियों साथ दो तुम अगर।
हमारे जंगल
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बेशकीमती मोती हैं हमारे जंगल।
कुदरत बनी बपौती हैं हमारे जंगल।
आयुर्वेदिक जड़ी बूटियों का भण्डार,
दीन दुखी की रोटी हैं हमारे जंगल।
अरण्य को सम्भालना जिम्मेदारी है,
आमजन की कसौटी हैं हमारे जंगल।
हमारे ग्रामीण आदिवासियों के लिए,
साड़ी, कुर्ता, धोती हैं हमारे जंगल।
कान्तार में रह रहे कबीलों के लिए,
अन्न, घर व लंगोटी हैं हमारे जंगल।
निर्मल और शीतल झरनें झर-झर बहते,
पय-पानी की सोती है हमारे जंगल।
विपिन सम्पदा की रक्षा हमारा फर्ज है।
लालची की फिरौती हैं हमारे जंगल।
❣️ - बाबूजी - - ❣️ -
थी बहुत तंगी मगर खूब मेले घुमाते थे।
बाबूजी मुझे रोज नई कविता सुनाते थे।
घर में आते आँखे मुझे ही ढूँढती रहती,
जब आवाज देते बिटिया कहकर बुलाते थे।
कभी दिखाते नहीं सामने अपना प्यार मगर,
भर बुखार में रातभर कांधे रख सुलाते थे।
मेरे भविष्य की चिंता में ही घुटते रहते,
अपनी सारी बैचेनियाँ हमसे छुपाते थे।
अपना जन्मदिन हमको कभी भी नहीं बताया,
पर मेरे जन्मदिन पे पूरा घर सजाते थे।
खुद निकाल कर के पुरानी कमीज पहन लेते,
मेरे हर त्यौहार पर नये कपड़े लाते थे।
गाढ़ी कमाई से मेरी बालियाँ ले आए,
स्वयं आठ किलोमीटर साइकिल से जाते थे।
सुभाषिनी जोशी 'सुलभ'*
इन्दौर मध्यप्रदेश