पुस्तक समीक्षा : मंजूषा बरवै छंदों की

 समीक्ष्य कृति : मंजूषा बरवै छंदों की

कवि : श्री दिनेश उन्नावी जी

समीक्षक : डाॅ बिपिन पाण्डेय 

प्रथम संस्करण-2020

मूल्य- ₹ 125/-

प्रकाशक: निखिल पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स,आगरा ( उ प्र) 

उत्तर प्रदेश का उन्नाव जनपद  साहित्यिक दृष्टि से सदैव से अत्यंत उर्वर रहा है।अनेक कवि, मनीषियों ने इस जनपद को अपने  साहित्यिक अवदान से न केवल भारत वरन् विश्व स्तर पर पहचान दी है। आज भी ये धरती अपनी उसी प्राचीन विरासत को लेकर चल रही है और साहित्य के क्षेत्र में नित नए कीर्तिमान स्थापित कर रही है।अवध क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले इस जनपद के एक ख्यातिलब्ध कवि हैं श्री दिनेश उन्नावी जी,जिनकी सद्यः प्रकाशित कृति का नाम है ' मंजूषा बरवै छंदों की'। प्रस्तुत है उनकी इस पुस्तक पर पाठकीय प्रतिक्रिया -

बरवै मूलतः अवधी का छंद है। वैसे कोई भी छंद किसी भाषा या बोली का नहीं होता परंतु प्रथमतः चूँकि अवधी भाषा में ही बरवै छंदों की रचना की गई इसलिए इसे अवधी छंद के रूप में मान्यता मिली।रहीमदासजी का 'बरवै नायिका भेद' और गोस्वामी तुलसीदास जी का 'बरवै रामायण' दो ऐसे ग्रंथ हैं जिनसे सभी साहित्य प्रेमी सुपरिचित हैं। इसके अतिरिक्त रीतिकालीन कवियों ने भी अपने लक्षण ग्रंथों में बरवै छंद का प्रयोग प्रचुर मात्रा में किया है किन्तु बरवै छंद को आधार बनाकर कोई पुस्तक बरवै नायिका भेद और बरवै रामायण के पश्चात् प्रकाशित नहीं हुई।कवि उन्नावी जी ने गोस्वामी तुलसीदास और रहीमदासजी की विरासत को आगे बढ़ाने का श्लाघनीय कार्य किया है।

मंजूषा बरवै छंदों की कृति में कुल 713 बरवै छंद हैं जो कि 51 अलग-अलग विषयों- वाणी वंदना,कृष्ण वंदना,गणेश वंदना,गंगा वंदना,माँ, अवधी,हिंदी, साहित्य, गुरु, तुलसीदास, कबीर,भारत,बेटी,पिता,कवि, कलाम साहब,महर्षि व्यास, होली,ईद,दीपावली,जाड़ा,बरसात,धूप,भूकंप,योग,किसान,छात्र, मच्छर, गुटखा, चुनाव, आबादी, महँगाई, दहशतगर्दी, परोपकार, पैसा,पानी,पर्यावरण प्रदूषण, वृक्षों की उपयोगिता,विद्या,समय,नया साल,सफाई,मजदूर, मतदान,अखबार अपना उन्नाव, विरहाग्नि, बिना साजन,क्रोध,काम और नीति को आधार बनाकर रचे गए हैं। ये सभी शीर्षक अवधी में ही हैं।मैंने पाठकों की सुविधा के लिए इन्हें खड़ी बोली  हिंदी में लिख दिया है। भाव और शिल्प की दृष्टि से सभी छंद उत्कृष्ट हैं। कवि ने छंद विधान का पूर्णरूपेण पालन किया है। मुझे पूरी कृति में कहीं भी कोई ऐसा छंद नहीं मिला जिसमें 12,7 मात्रा विधान और द्वितीय तथा चतुर्थ चरण के अंत में जगण का पालन न किया गया हो।सभी छंदों में यति,गति और गेयता का सौष्ठव समान रूप से दिखाई देता है।

बरवैकार उन्नावी जी के सभी छंद यथार्थ की  परिपक्व भावभूमि पर रचे गए हैं। माइ बड़ी है सबते शीर्षक के अंतर्गत जो छंद उन्होंने रचे हैं वे एक भोगा हुआ यथार्थ प्रतीत होते हैं। भले ही आज के वैज्ञानिक युग में माँ के द्वारा बच्चों को बुरी नज़र से बचाने के लिए राई लोन उतारना अंध-विश्वास लगता हो पर माँ तो माँ होती है।जब बच्चे के स्वास्थ्य की बात आती है तो पढ़ी लिखी डिग्रीधारी माँ भी वे सारे उपाय अपनाने के लिए तैयार हो जाती है जिनसे उसे ऐसा लगता है कि उसका बच्चा ठीक हो सकता है।

राई लोनु उतारै, नदी बहाय।

इहि बिधि माई टारै, सकल बलाय।

दुलरावै, नहलावै, समय निकारि।

लरिका, बिटिया राखै, साजि सँवारि।।

खुद पौढ़ति गीले मा,माइ महान।

सूखी जगह सुलावति,निज संतान।।

हर भाषा और बोली की अपनी एक खास मिठास होती है जो बरबस ही लोगों को अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है।पर बात जब अपनी मातृभाषा की होती है तो व्यक्ति के मन में उसके प्रति सहज अनुराग होना स्वाभाविक है। बरवैकार उन्नावी जी भी इससे अछूते नहीं हैं। अपनी अवधी भाषा के प्रति उनका लगाव देखते बनता है।

अवधी बानि अपनि है,बड़ी पियारि।

यहिके बरे द्याब हम,तन मन वारि।।

यह तौ मीठि शहतु असि, सबहिं लुभाय।

यहिकै उपमा हम कहुँ, नाहिं देखाय।।

माननीय प्रधानमंत्री जी के नारे 'बेटी बचाओ,बेटी पढ़ाओ' से प्रेरित होकर बरवैकार उन्नावी जी ने बिटिया शीर्षक के अंतर्गत बड़े ही मार्मिक और भावपूर्ण छंद रचे हैं।

हैं उपहार प्रभू की,नेह बढ़ाव।

बिटियन का तुम स्यावौ, खूब पढ़ाव।।

बिटियन की पैदाइशि,होय जरूर।

बिनु बहिनी का भाई, निरा अधूर।।

कवि ने होली के साथ -साथ फागुन के महीने में प्रकृति में होने वाले बदलावों का भी मोहक चित्रण किया है।होली का प्रभाव केवल मनुष्यों पर ही नहीं पड़ता ,प्रकृति भी उससे अछूती नहीं रहती।

बिरवा पात पुराने,दीन्हेनि झारि।

सुरभि समेटे अँचरे, बहति बयारि।।

अमवाँ के तरु सिगरे, गे बउराय ।

दिहिनि नशीलि महक वहि,जग बिखराय।।

हमारे लोकतंत्र  की चुनाव एक अहम प्रक्रिया है। कभी लोक सभा के चुनाव होते हैं तो कभी विधानसभा के।जब इन दोनों चुनावों में से कोई नहीं होता तो स्थानीय निकायों के चुनाव हो रहे होते हैं।मतलब चुनाव देश में होने वाली एक सतत प्रक्रिया है। मतदाताओं को लुभाने के लिए प्रत्याशियों द्वारा जो हथकंडे अपनाए जाते हैं, वे भी सर्वविदित हैं। बरवैकार ने जो कुछ देखा है, उसे पाठकों के समक्ष बड़ी ही सटीकता से प्रस्तुत किया है।

पूजित सब जन नहिं कोउ, दिखत अछूत।

भल्लू ,कल्लू तक का,बढ़त वजूद।

ठेलुअन कै बनि आवति,ढ्वाकति जाम।

चलति बिलइती देशी,रोजुइ शाम।।

उन्नावी जी ने अनेक नीति संबंधी बरवै भी रचे हैं जिनमें उन्होंने लोगों को समझाने का प्रयास किया है कि हमें विपत्ति के समय धैर्य नहीं खोना चाहिए, कभी भी अपने शरीर और धन पर अभिमान नहीं करना चाहिए। हमें सदैव अपने बड़े बुजुर्गों का सम्मान करना चाहिए।

दुखु पा टूटौ जनि तुम,मानहु बात।

धरि धीरज जग द्याखौ, दुखुइ लखात।।

करहु जुहार बुजुर्गनि, शीश झुकाय।

जिनके आशिर्वादनि, बिपति नशाय।।

मदद करै बिपदा महुँ, जो इंसान।

पूजा जावै जग मा,जस भगवान।।

बरवैकार उन्नावी जी का बरवै छंद से विशेष अनुराग है इसीलिए उन्होंने बरवै छंद के माध्यम से अवधी भाषा में सफलतापूर्वक भावाभिव्यक्ति की है। अवधी कवि की मातृभाषा है।कवि की जन्म-स्थली और कर्म-स्थली दोनों ही अवधी भाषी क्षेत्र ही है।अतः उनकी भाषा में एक सहज प्रवाहमयता है। पुस्तक की भूमिका में साहित्य भूषण चंद्रिका प्रसाद कुशवाहा जी की भाषा को लेकर की गई ये टिप्पणी ' किंतु अनेक स्थानों पर परिमार्जित हिंदी के शब्द भी बरबस आ गए हैं' समझ से परे है जबकि वे 'हो सकता है' के साथ इस बात को भी स्वीकार करते हैं कि ये कवि की विवशता है। कोई भी कवि अपने लेखन में उन्हीं शब्दों का प्रयोग करता है जिनसे वह भावों को सटीकता से अभिव्यक्त कर सके और बरवैकार उन्नावी जी ने भी यही किया है। 

कवि ने अपने आत्म निवेदन में दो आकांक्षाओं का उल्लेख किया है पहली बरवै छंद विलुप्त न होने पाए और दूसरी मातृभाषा अवधी दिन - प्रतिदिन आगे बढ़े। निश्चित रूप से इस कृति के प्रकाशन के साथ ही कवि की दोनों आकांक्षाएँ पूर्ण होंगी।इस पठनीय और संग्रहणीय कृति के प्रकाशन के लिए बरवैकार उन्नावी जी को अशेष शुभकामनाएँ।

समीक्षक

डाॅ बिपिन पाण्डेय 

रुड़की।

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