डाॅ. अनीता शाही सिंह
स्त्री एक किताब की तरह होती है
जिसे देखते हैं सब
अपनी अपनी ज़रूरतों के हिसाब से
कोई सोचता है उसे
एक सस्ते उपन्यास की तरह
तो कोई देखता है उत्सुक सा
एक हसीन-रंगीन चित्रकथा समझकर
कुछ पलटते हैं, इसके रंगीन पन्ने
अपना खाली वक़्त गुज़ारने के लिए
तो कुछ रख देते हैं घर की लाइब्रेरी में सजाकर
किसी बड़े लेखक की कृति की तरह
स्टेटस सिंबल बनाकर कुछ ऐसे भी हैं
जो इसे रद्दी समझकर पटक देते हैं
घर के किसी कोने में
तो कुछ बहुत उदार होकर पूजते हैं मंदिर में
किसी आले में रखकर
गीता, कुरान, बाइबिल जैसे
किसी पवित्र ग्रंथ की तरह
स्त्री एक किताब की तरह होती है
जिसे पृष्ठ दर पृष्ठ कभी कोई पढ़ता नहीं समझता नहीं
आवरण से लेकर अंतिम पृष्ठ तक
सिर्फ़ देखता है, टटोशलता है
और वह रह जाती है
अनबांची, अभिशप्त सी
विस्तृत होकर भी सिमटी सी... छुए तन में.....
एक अनछुआ मन लिए सदा ही ।।
डाॅ. अनीता शाही सिंह
प्रयागराज