जगत-जननी मां

 


अस्मिता प्रखर

लिखूं भी तो क्या लिखूं जीवन दायिनी मां के लिए।

जिसने स्वयं ही मुझे लिखकर भेजा है।

जितना भी लिखूं कम ही है मां के लिए,

बहुत ही मुश्किल है मां का ब्याख्यान कर पाना।।


ममतारूपी उपवन की छत्रछाया होती है मां।

बच्चों के प्रति अथाह प्रेम समर्पण होती है मां।

दिल का कोना-कोना रीझ जाता है उसके अनुपस्थिति में,

क्योंकि अविरल प्रेमरूपी सरिता का सागर होती है मां।।


समस्त सृष्टि का सृजनहार होती है मां।

प्रेमरूपी करूणा की रसधार होती है मां।

शब्दों में बयां कर पाना बहुत ही मुश्किल है,

क्योंकि सृजन का बीज होती है मां।।


सरस-मृदुभाषी, अभिलाषी होती है मां।

बच्चों के जीवन में खुशियों का सरगम सजाती है मां।

भले ही मां क्यूं ही अनपढ़ हो लेकिन,

हर दर्द की औषधि बन जाती है मां।।


आशिर्वचनों का आवास होती है मां।

संस्कारों का ताजमहल होती है मां।

उसके कर-कमलों में बहता सदा अमृत का धार है,

क्योंकि जीवन की नईया की खेवइया होती है मां।।


अस्मिता प्रखर

प्रयागराज ,उत्तर-प्रदेश

विधा- कविता ( मुक्तक) ( स्वरचित)

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