ग़ज़ल



विद्या भूषण मिश्र "भूषण"

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आजकल सबको पड़ोसी से भी डर लगता है, 

कोई वीरान सा हर एक शहर लगता है!!

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रोज बरसों से जो हमराह बन के चलता था, 

अब वही शख़्स क्यों अनजान बशर लगता है!!

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पेड़ पीपल का जिसकी छाँव में हम खेले थे, 

वक्त़ की मार से वो ठूँठा शज़र लगता है!! 

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वादियाँ हो गयीं वीरान गूँजती चीखें, 

ये मेरे मुल्क़ के दुश्मन का कहर लगता है!!

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फूल खिलते थे, महकती थी जहाँ की धरती,

वो चमन आज हमें जैसे सहर लगता है!! 

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है बड़ा बेशरम अपना ये पडो़सी यारो, 

नाम के उल्टा इसका काम मगर लगता है!! 

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पार सरहद के एक मुल्क है ऐसा "भूषण" , 

रोज़ बाजा़र-ए-दहशत का उधर लगता है!!

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*_ विद्या भूषण मिश्र "भूषण"_ बलिया, उत्तरप्रदेश*

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