कवियित्री रंजना बरियार की रचनाएं



 1.

   "हौसले हों बुलंद "


हौसले हों अगर बुलंद ,

तो हम क्या नहीं कर सकते,

थाल में उतारकर चाँद,

जमीं चाँद से सुंदर बना सकते,

शीत सुधा पान कर सकते!


हौसले हों अगर बुलंद 

तो सहर ही रौशन नहीं होते,

जीवन का हर पहर हम,

रौशनी से चकाचौंध कर सकते,

नवल धवल हर्ष जी सकते!


हों चहुँओर घना तम,

वन में हम तम के भी,हौसले 

के तीरों से कर बौछार,

मनचाहे लक्ष्य प्राप्त कर सकते,

यूँ ही नहीं हम हारा करते!


साँसें हों आती जाती,

होता नहीं तब आकाश बाक़ी,

मकड़ी चढ़ती  दीवार,

चढ़ चढ़ गिरती जाती बार बार,

जाले बनाकर ही लेती दम!


संघर्ष के बग़ैर यहाँ,

मनचाही राहें मिलती कहाँ,

चाहत हों गर बुलंद

राहों में कारवाँ मिल ही जाता,

संग में मिल जाता जहाँ!


हार मान लेते गर हम,

पीढ़ियाँ कई हो सकतीं अवनत,

अधिकार कहाँ पाते हम,

निज अक्षम प्रवृत्ति औरों में थोपें,

विकल्प नहीं है हार जाना!


हौसले हों इतने बुलंद ,

रोक सके नहीं कोई बढ़ते कदम!


स्वरचित 

रंजना बरियार 


2.


गिरफ़्तारी ही नियति


यामिनी का

दूसरा पहर,

ताकती मैं 

अनवरत छत,

दीवारों- दर में 

क़ैद रूह...

बिखरे हैं पर,

रूह बड़ी बेबस...

अश्रु हैं क़ैद ,

नयनें बड़ी बेदर्द...

 गिरफ़्तारी ही नियति,

 प्रेम है विवश.....


बेसुध पड़े थे तुम 

निद्रा की गोद में...

कोई फ़रिश्ता ही 

पड़ा हो जैसे....

आँखें जो देखे 

मैनें बंद कर के...

मंद मंद तुम्हीं मुस्काए.....

चुभ जाए न कहीं 

बरौनियाँ तुम्हें...

 गिरफ़्तारी ही नियति, 

प्रेम है विवश...


खोल दिए मैंने 

नयन अपने.....

ताकने  लगी 

छत की तरफ़...

बनने लगे चित्र 

कई फलक पर...

श्रृंखलित होते गये 

मौसम सब...

चढ़ते उतरते रहे 

हम सोपानों पर....

गिरफ़्तारी ही नियति, 

प्रेम है विवश...


मंद मंद आने लगी 

बयारें सुरमई ,

होने लगी सुरभित  

फ़िज़ाएँ भी...

मंद हुआ 

तिमिर का क़हर.....

झाँकने लगी 

रवि की किरणें....

फिर उदय हुआ 

नए सहर का....

गिरफ़्तारी ही नियति 

प्रेम है विवश...

*******

स्वरचित 

रंजना बरियार

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