हृदयवेध पीड़ा

 

श्री कमलेश झा

हृदयवेध पीड़ा देता है

 अपनों के वो कटु बोल।

टिस उठाता है दिल में

अपनों के कहे वो कटु बोल।


लालन पालन में क्या कमी रहगयी

 जो मुख से निकले कटु बोल।

याद करो वो थपकी मेरी

 कहने पर वो कटु बोल।।


दोराहे खड़ा आज मैं सोचूँ

 क्या मैंने कुछ किया अपराध ?

जीवन के हर मोड़ खड़ा था 

जहाँ भी ढूंढा मुझे समाज।।


चिंता थी बस अपनों की 

कैसे शस्क्त हो मेरा लाल।

पग वाधा को दूर कर 

खुद चलना सीखे मेरे लाल।


कहाँ पता था चलते चलते 

निकल जाएगा वो नए राह।

जहाँ केवल निजस्वार्थ ही हावी

 रख न पायेगा मेरा ख्याल।।


हाँ मैने भी तो यही किया था

 पाल पोश कर किया तैयार।

मन मे अपने दवे विचार को 

तुमसे पूरा करने की आश।।


नही मांगता आलीशान वो बंगला

 नही चाहिए मखमली खाट।

धूप तपा है यह तन मेरा और 

बिना बिछावन बाली थी खाट।


पर स्नेह बहुत था अपनों का 

बाबूजी और माँ के साथ।

नन्ही नन्ही उंगली तेरी 

 जब फिरती थी तन पर हाथ।।


थकान भुला वो दिन भर का 

जब किलकारी का होता साथ।

निद्रा के आगोश में जाकर 

फिर तैयारी अगले दिन का खास।।


तब कहाँ पता था ये बृद्धाश्रम और

 कहाँ पता था अपनो का परित्याग।

तब तो बस लगता था जैसे 

आने वाला दिन होगा खास।।


अब टिस लिए दिल मे ही बस 

घसीट रहा हूँ अपने को आप।

याद कर बस पुरानी बातों को

 तिल तिल हीं जल रहा हूँ आप।


श्री कमलेश झा

नगरपारा भगालपुर

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