ग़ज़ल

विद्या भूषण मिश्र "भूषण"

ज़िंदगी फिर उलझ गयी सी है!

इक कहानी तिलिस्म की सी है!!

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घट गया ऐतबार अपनों पे,

प्यार में कुछ कमी कमी सी है!!

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लाज आँखों में अब नहीं दिखती,

शर्म बाजार में बिकी सी है!!

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आदमी आदमी नहीं लगता,

उसकी सूरत बदल गयी सी है!!

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हो गया है जहाॅं मसानों सा,

कू-ब-कू मौत नाचती सी है!!

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भूख मिटती न प्यास है बुझती,

जीस्त में खलबली मची सी है!!

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बॅंट गया देश फिर से फिरकों में,

जल रही आग मज़हबी सी है!!

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डूब मंज़र गए मुहब्बत के,

नफ़रतों की बही नदी सी है!!

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*- विद्या भूषण मिश्र "भूषण"-*

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