मोहिनी गुप्ता
मौन रहकर मौन की
भाषा को मैं समझा करूँ
शोर है बाहर कि अब
मन की मैं सुनना चाहती हूं।
बाहरी आडंबरो की
ओट से जाना है सब
अब मैं मन के नयनों
से समझना चाहती हूं।
है यहां अद्वितीय
अभिनय में है पारंगत सभी
मन की अब सच्ची
अदाकारी से जुड़ना चाहती हूं।
सिल नहीं सकता कोई
भी घाव झूठे प्यार से
अब ठहर कर मैं स्वयं
को प्यार देना चाहती हूं।
जो पड़ी है चोट अब
तक आत्मा पर मेरी
प्रेम की बारिश से
शीतल तृप्ति देना चाहती हूं ।
रूप रंग दर्पण में देखा
प्रेम से सजती रही
अब तनिक रुक कर में
अंदर से सँवरना चाहती हूँ।
प्रेम हो सबसे मेरा
मन में है बस ये कामना
मोहिनी...इस नाम को
मैं अर्थ देना चाहती हूं।
शोर है बाहर बहुत मन
की में सुनना चाहती हूं।।
मोहिनी गुप्ता
हैदराबाद तेलंगाना