वो शब्द नहीं अब भाव कहाँ-!
वो शब्द नहीं अब भाव कहाँ
वो छन्द नहीं अब मेल कहाँ
श्री राम चरित मानस जैसा
अब लिखता कोई ग्रन्थ कहाँ
वो लेख नहीं अब कलम कहांँ
वो अब तुलसी रसखान कहाँ
वो सूझ नहीं अब उपदेश कहाँ
अब गीता जैसा ज्ञान कहाँ
वो योग नहीं अब वैराग्य कहांँ
अब पहले जैसे सन्त कहाँ
वो राम नहीं अब लखन कहाँ
अब लक्ष्मण जैसे भ्रात कहाँ
वो पुत्र नहीं अब आशार कहाँ
अब श्रवण जैसे पूत कहाँ
वो नारि नहीं अब सतित्व कहाँ
अब अनुसुइया जैसी मातु कहाँ
वो प्रेम नहीं अब भाव कहाँ
वो शबरी जैसा अब प्रेम कहाँ
वो युद्ध नहीं अब संग्राम कहाँ
अब महाभारत जैसी रणभूमि कहाँ
वो वीर नहीं अब पूत कहांँ
अब पहले जैसे शौर्य कहाँ
कवि गरिमा-!
कवि चेतना
धूमिल होती
जब आलेख
चुराया जाता है
साधना प्रभन्जन
हो जाती है
जब पर कृतियों पर
खुद को श्रेय
दिया जाता है
भाव भले ही
न मालूम हो
पर आलेख
चुराया जाता है
बड़े हर्ष से
उसके नीचे
खुद को श्रेय
दिया जाता है
ऐसा करने से उनको
कुछ सम्मान जनक
सम्बोधन मिल जाता है
ऐसे अपराधों
के होने पर
अस्तित्व काव्य का
मिट जाता है
कवि चेतना
धूमिल होती
जब आलेख चुराया जाता है
जा रहे तो जाओ-!
जा रहे हो तो जाओ
हम तुम्हारे जाने से
खेद क्यों करेंगे
खुद को इतना
मायूश क्यों बनायेंगे
हमको तो अब वैसे
ही रहना है
जिस विविक्ता में हम जी रहे थे
ये तुम्हारी चार दिन की
खुशियायों से हम
क्यों उलझेंगे
इस प्रणय के झंझावात
से क्यों टकरायेंगे
जा रहे हो तो जाओ
हम जी लेंगे
यहां तो अब विविक्ता
में रहने की प्रवृत्ति बन चुकी है
खुशियां लेकर आए थे
शिशकियाँ देकर जाओगे
कुछ दिन इस प्रणय
के झंझावात
इस हृदय के उद्गार से
उठते रहेगें
फिर शान्त हो जायेंगे
फिर वही विविक्ता जितेंगे
जिस विविक्ता में हम जी रहे थे
तुम जा रहे हो तो जाओ
हमे तुम्हारे जाने का
कोई खेद नहीं है
शरद कुमार पाठक
डिस्टिक -------(हरदोई)
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