कवियित्री आराधना प्रियदर्शनी की रचनाएं

 


जीत जाएंगे हम


रस्ते में चलते चलते,

घबरा के तुम कहीं ठहर ना जाना,

हमे मिलकर साथ उभरना है,

इस वादे से कहीं मुकर ना जाना।

    

आसान हो जाएगी ये संकट की घडी,

 हम सबको आगे बढ़ना होगा,

असंभव भी संभव हो जायेगा,

बस एक जुट होकर लड़ना होगा।


सुख का दिया जलेगा तब,

कामयाबी से गूंजता अब्र होगा,

विजय निश्चित होगी जब हमारे अंदर,

अपार संयम और सब्र होगा।

 

छट  जाएगी दुःख की बदली,

फिर से उजियारा छायेगा,

रोगमुक्त होगी ये धरती अपनी,

जीत का परचम लहराएगा।


सम्पूर्णा

 जो मेल है सद्भावनाओ का , 

एहसासों के सौम्य निर्मलता का , 

जो खुद ही ढूंढ ले मंज़िल अपनी , 

जो रहस्य ढूंढ लाये सफलता का।


जो चुनकर दिखाए राह सही , 

महत्व समझाए तपन में तपने का , 

ना घबराना परिस्थितियों से , 

ये ही वक़्त है सोना बनने का।

कमज़ोर नहीं , कठोर नहीं ,

 पर न्याय के लिए वीरांगना है , 

है उनके अंदर ममता और सरलता , 

उनसे ही रौशन घर अंगना है।


जो धन धान्य से भर दे भण्डार , 

वह समृद्ध कुशल अन्नपूर्णा है, 

हर नारी प्रतीक है गुण और शक्ति का,

हर नारी  सम्पूर्णा है।


मूर्ति


मौन रहकर भी सबकुछ कहती है,

मन मे भक्ति बनकर रहती है,

ये स्थित होती है धर्म स्थलों मे,

निर्जीव होकर भी जीवन्त रहती है।


     कभी मुस्काती, कभी हंसाती,

     डुबोती बचपन को प्यार मे,

     खुशी देती है खुद अचल होकर,

     जो बिकती है बाजार मे।


कभी ये धरकर रूप शहीदों का,

हमको उनकी याद दिलाये,

कभी चँचलता, कभी मृदुलता देकर,

हर मूर्ति जीवन दर्शाए।


      कभी तो अपने हास्य विनोद से,

      तरह तरह के रंग दिखलाए,

      कभी नयन मे करूणा भरकर,

      सागर अश्रु मोति छलकाए।


हमेशा सजी नई संवेदनाओं से,

और नई स्फूर्ति से,

पाते हम जीने की प्रेरणा,

इक बेजान मूर्ति से।

            

मिट्टी


जिसके गोद में खेले हम,

फले फुले और बड़े हुए हैं,

इसकी ही ऊंगली पकड़ पकड़ कर,

अपने पैरों पर खड़े हुए हैं।


         इसने हमको परिपूर्णता दी,

         इसने हमको है पाला,

         इसके अन्दर है प्रेम ही प्रेम,

         इसके अंदर है ज्वाला।


विपदा मे भी मुसकाती है ये,

सहनशीलता से ये बनी हुई,

अपने संतानो की बली देखी है,

शहीदों के खून से रंगी हुई।


           इसकी खुशबू मे जाने क्यूँ,

            ऐसी अद्भुत शक्ति है,

            धरती मां का संदेश लिए,

             ये शांतिकारिणी मिट्टी है।

           

मां बाप से बिछड़े ना संतान


चुपचाप कभी विराने में,

बैठे यही सोचती हूं,

कभी आभार प्रकट करती हूं लम्हों का,

कभी क्रोध में आकर कोसती हूं।


           विवेक संयम रहा ईतना,

           जिसे कोई उलझा ना सका,

           पर है क्या पहेली ये जि़ंदगी,

           जिसे कोई सुलझा ना सका।


जो जानते तक नहीं हमें,

रोते हैं हम ऐसे फणकार के लिये,

निःस्वार्थ छलकतें हैं जज़बात,

ना किसी मतलब ना व्यापार के लिये।


        खुशियां देखी हैं अपार,

   जगमगाती हुई सफलता भी देखी है,

       कभी मायूस सी शाम,

 तो कभी निर्मम विफलता भी देखी है।


कितना अनमोल एहसास होता है,

प्रेमपूर्ण किसी के आगे झुक जाना,

होती है कैसी वो बेचैनी,

होता है क्या सांसों का रूक जाना।


            लाखों हादसे देखते हैं हम,

            अखबारों और खबरों में,

        क्या हलचल कोई सुनी है कभी,

             श्मशानों या कब्रों में?


सबकुछ तो याद नहीं रहता पर,

कुछ सशक्त तथ्य तड़पाती है,

कितनी यातनाओं से गुजरते होंगे वो मां बाप,

जिनसे उनकी संतान जुदा हो जाती है।


हिम्मत देना उनको सांई,

रहना बनकर उनकी आस,

कोई व्याख्या नही उस मर्म का,

कोई शब्द नहीं है मेरे पास।

                    

सबका मालिक एक


क्या कहना उस रूप का,

नयन ज्योत के धूप का,

क्या कहना उस दया दर्पण का,

क्या कंहू प्रत्यक्ष उस दर्शन का|


ऑंखों की रौशनी बनकर,

जीवन का ध्येय बनकर,

हृदय पे छाई वो मंगल मूर्ति,

मेरे ही मन का श्रेय बनकर|


वो देखे सबको एक समान,

उनके हैं भक्त अनेक,

वो सबकी कामना पुर्ण करें,

वो सबका मालिक एक|


नारी


मिलती है बस कांटों की डगर,

और कहलाती है जो फुलवारी,

पाबंदियों के ज़ंजीर में कराहती है जो,

वो कहलाती है नारी|


    सहती है घुट घुटकर हर दुःख,

   और कहतें हैं पली नाज़ों में प्यारी,

     जो बंधी होती हैं सीमाओं में,

      दबी होती है रिवाज़ो से नारी|


करवट लेती है बंदिशों में वो,

और कहते उसे आज़ाद परिन्दा है,

बस गुलामी करती, शोषण सहती,

सोचो, नारी कैसे जिंदा है |


         उसे संज्ञा देते हैं जीवन्तता की,

          बस सौंदर्य की मूर्ति लाश सी,

          एक नारी से पूछी जाती है,

          आवागमन उनके ही सांस की|


कभी दी नही जाती आज़ादी,

युवकों की तरह पूरे हक से,

चाहे वो सर्वश्रेष्ठ हो जग में,

पर देखा जाता है उन्हें शक से|


       इनसे हंसती है हर बगिया,

       खिलती है हर फुलवारी,

      फिर भी ईलज़ामों से होकर बेबस,

       है रोती शोषण की मारी|


जिसकी सच्चाई स्वच्छता भी,

पापी दुनिया से हारी है,

प्रमाण ना जुटा पाए जो वो,

क्यूँ चरित्रहीन फिर नारी है?


    जिसका सौंदर्य ही है दुश्मन उसका,

    बैरी सूरत प्यारी है,

    शत्रु है भोलापन जिसका,

    वो अंजान अभागन नारी है |


जिन्हें बलिदान करना पड़ता है सबकुछ,

अपनी ईच्छा देनी पड़ती है,

क्यूँ नारी को ही स्वच्छता की,

परीक्षा देनी पड़ती है |


         छीन लिया जाता है जिनसे,

         उनके हर अधिकार,

       नफरत ही आता है उनके हिस्से,

        कभी मिलता नही है प्यार|


नही समझी जाती नारी भावना,

उनसे किया जाता है खिलवाड़,

उनके मधुर व्यवहार से भी,

किया जाता है व्यापार |


              जिसके दम पे है ये दुनिया,

              है ये श्रीष्टी सारी,

              हर निर्माण की जननी वो,

              जो कहलाती है नारी |

         

आराधना प्रियदर्शनी 

स्वरचित एवं मौलिक 

बेंगलुरु

 कर्नाटक     

                 

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