गीता पाण्डेय 'अपराजिता'
कल देखा मैंने एक सुंदर सा सपना ।
फूलों के शहर में एक महल अपना।।
भाँति-भाँति के रंग बिरंगे फूल खिले ।
भंवरे तितली थे आपस में हिले मिले ।।
दास दासी भी सब चारों तरफ थे लगे ।
चौकीदार भी द्वार पर खड़े जगे-जगे ।।
मैं लेटी थी बिस्तर पर जैसे शहजादी ।
क्या खूब मिली थी मुझको यह आजादी ।।
सबको डांट डपट लगाते घूम रही ।
अपनी मस्ती में ही खूब मैं झूम रही ।।
सुंदर पकवानों की थाल लिए वे खड़ी ।
मैंने सोचा वाह मैं तो हो गई खूब बड़ी ।।
क्षण भर को सही बड़ा आनंद आया ।
खूब मस्ती की धमाल बहुत मचाया ।।
तब तक बेटे ने एक आवाज लगाई।
हो गया सवेरा जागो तो अब मेरी माई ।।
सपना वह सारा तो फिर से चूर हुआ।
मन ही मन सुनते सब काफूर हुआ ।।
फिर याद आया शिक्षक की क्या हस्ती ।
इसके जीवन में कहां लिखी है ये मस्ती ।।
उठकर लगी वह अपनी दिनचर्या ।
गीता करने लगी सामाजिक परिचर्या ।।
(प्रवक्ता)
उपप्रधानाचार्य-
रायबरेली उ०प्र०