"हौसले हों बुलंद "
हौसले हों अगर बुलंद ,
तो हम क्या नहीं कर सकते,
थाल में उतारकर चाँद,
जमीं चाँद से सुंदर बना सकते,
शीत सुधा पान कर सकते!
हौसले हों अगर बुलंद
तो सहर ही रौशन नहीं होते,
जीवन का हर पहर हम,
रौशनी से चकाचौंध कर सकते,
नवल धवल हर्ष जी सकते!
हों चहुँओर घना तम,
वन में हम तम के भी,हौसले
के तीरों से कर बौछार,
मनचाहे लक्ष्य प्राप्त कर सकते,
यूँ ही नहीं हम हारा करते!
साँसें हों आती जाती,
होता नहीं तब आकाश बाक़ी,
मकड़ी चढ़ती दीवार,
चढ़ चढ़ गिरती जाती बार बार,
जाले बनाकर ही लेती दम!
संघर्ष के बग़ैर यहाँ,
मनचाही राहें मिलती कहाँ,
चाहत हों गर बुलंद
राहों में कारवाँ मिल ही जाता,
संग में मिल जाता जहाँ!
हार मान लेते गर हम,
पीढ़ियाँ कई हो सकतीं अवनत,
अधिकार कहाँ पाते हम,
निज अक्षम प्रवृत्ति औरों में थोपें,
विकल्प नहीं है हार जाना!
हौसले हों इतने बुलंद ,
रोक सके नहीं कोई बढ़ते कदम!
"कोशिश.... आशा"
बग़ैर कोशिश,आशा
एक निठल्ले को,
सुंदर पोशाक की
प्रत्याशा है!
भोजन,तन ढकने के
पोशाक,सर छुपाने को छत,
सहानुभूति वश
अथवा सरकारी योजनाओं
तहत वो पा भी सकता है...
पर शौक़ दूसरों की
सहानुभूति पर क़तई
निर्भर नहीं हो सकता!
कोशिशें भी प्राथमिकता
सूची के आधार पर ही
सार्थक हो सकतीं हैं..
मूल भूत ज़रूरतें-
भोजन,वस्त्र, आवास
की प्राप्ति होने पर ही
अन्य ज़रूरतों की आशा
सार्थक प्रयासों की प्रत्याशा है...
वरना कोशिशें दिखाना,
खुद को ही भुलावे में
रखना है...
ये तो बस भिक्षुक को
एक कार की अभिलाषा है!
मूल भूत ज़रूरतों से तृप्त
मन अथक प्रयासों पर भी
तब ही आशाओं को
स्पर्श कर सकता ,
जब आशावादी भावों
से उसने कोशिशें
प्रारम्भ किया होता!
आशा की योग्यता ही
कोशिशों की सार्थकता है!
बग़ैर योग्यता आशा
मृग मरीचिका है!
***********
"प्रेम वासना नहीं उपासना है"
नेह, लगाव, उत्कंठा,
नैनों से होता हुआ उर की तहों
में जाकर जब बसना चाहे....
पलकों की बरौनियाँ
अहसासों को सहलाना चाहे...
अँजुरियों में भर प्रेम पीयूष
मूँदी आँखों से आत्मा की
आचमनी करना चाहे.....
गुलाब की कोमल पंखुड़ियों
सी आत्मा,प्रिय के उर में
सुवासित आत्मा को सुरभित
कर विलीन हो जाए...
ह्रदय का स्पंदन पूजा की
घंटी सा सरगम का आभास
देने लगे....
अश्रुओं के अक्षत से हम
प्रिय का पद प्रक्षालन
करने लगें......
समझो प्रेम उत्कर्ष को
प्राप्त करता हुआ कमलाक्ष
उपासना को है अंकुरित कर रहा...!
उपासना क्रम में विलीन साधक,
जब हो जाए विलीन साध्य में,
है ये उपासना का ही अंश....
प्रेम उपासना के रास्ते
विलय की हदें पार कर
दैहिक विलय क़तई नहीं
कहलाता वासना....
वासना में शुरू की गई राहें
कदापि प्रेम पथ को जाती नहीं...
प्रेम की शुरूआतें देह पार
जाकर भी उपासना ही कहलाती...
'मौन '
मौन है शक्ति अदम्य,
मौन है भक्ति अनन्य,
तम के धुँध में निरन्तर
विलुप्त हो रहे ख़्यालों को
कालांतर में मौन साधना
कर देती है उजागर!
करती है यही प्रेरित
दरार पड़ते उन ख्याली
महलों की तुरपायी !
मौन है अदम्य शून्य,
यही है नभ सा विस्तार!
मौन है शांति,वाचाल भी,
यही आवाज़ विहीन
कथा शिल्पकार होता!
श्रोता धुँध जब हो जाता,
तब मौन निरर्थक भी हो जाता!
मौन है अन्तर्मुखी दशा,
जो शब्दों के विन्यास
में उलझा होता!
समाधान के प्रयास में,
अंदर ही अंदर ये
गुमराह भी हो जाता!
मौन साधना के उपरांत
उपजे शब्दों के विन्यास का,
होता है अगर तार्किक इस्तेमाल,
दे सकते तब ये मसलों के
सम्यक् समाधान!
पर नितांत मौन कर देते हैं
रूख गुमराह की ओर!
गुमराह होकर मनुज
समुदाय से पृथक
एकान्त भोगी हो जाता !
सुकून के वजाय अक्सर वो
आपदाओं में खुद को घिरा पाता!
परिणाम,अवसाद-कुंठाग्रस्त
जीवन उपहार में मिल जाता!
अतिशय बेमक़सद मौन निर्रथक,
मक़सद का मौन सदैव सार्थक!
'नसीब'
अक्सर हम बुद्धि जीवी,
जीवन की असफलताओं
को नसीबों से जोड़ने की
आदत हैं पाल लेते ,कहते ,
हाथों की वो लकीरें उल्टी,
सफल नहीं है कर सकती!
संघर्ष अगर हमें नहीं भाता,
दिशाहीन दौड़ हमें है भाता,
अनुभवी राय नहीं सुहाता
नसीब संग कैसे हो सकता!
देख ले उर में जो एक बार,
कह देगा वो हमारे सब राज!
रक्त हाड़ मांस सब समान
कुदरत ने अगर हमें नवाज़ा
तब कैसे होता कोई सफल,
कोई नहीं,जीवन की राहों में,
बेज़ुबाँ नसीब को कह दोषी,
सँकरी गली से हम निकलते!
कुदरत ने नवाज़ा मनुज को,
आत्मा के अद्भुत उपहार से,
आत्मा है दिखाती नहीं कभी,
राह अनुचित, सीख लें अगर
हम उन राहों का अनुकरण,
तो नसीब दोषी फिर न होगा!
राई से पहाड़ बना सकते हम,
पहाड़ से भी राई बना सकते,
लक्ष्य प्राप्ति का संकल्प दृढ़,
दुर्गम राहों को करती हैं सुगम,
असाध्य को कर देती हैं साध्य,
नसीब दोषी भी नहीं होता तब!
**********
"बिन शब्द जीवन का अनुमान नहीं "
शब्द ब्रम्हाण्ड का विस्तृत आकाश,
नाप सकता नहीं कोई इसका विस्तार!
कुछ होते कहे,कुछ हैं अनकहे,
कहे शब्द कर देते प्रमाणित हैं कथ्य,
खुद रह तटस्थ,तालियाँ भी हैं बजाते!
प्रभाव से रहकर उदासीन ये,
तथ्यों की अहमियत हैं जताते!
कभी जड़ देते ख़ुशियों का पिटारा,
तन मन भाव विभोर हैं कर देते,
तो कभी बरपाकर दुखों का वज्र,
निष्प्राण भी हैं कर देते!
बीच में भी शब्दों के,
अनकहे कई शब्द हैं होते,
करते तो नहीं प्रमाणित तथ्य,
पर वज़नी बहुत हैं होते!
जीवन पथ को देकर नया मोड़,
सुगम या दुर्गम भी हैं बना सकते!
कभी आँखो से होकर प्रवाहित
शब्द कई,संवाद अपने हैं कह जाते!
स्पर्श की भाषा से भी शब्द कई,
कथ्य का शंखनाद हैं कर जाते!
शब्दों के रूप हों चाहे जैसे,
यही संवाद संवहन के साधन हैं होते!
इनके बल बूते पर ही हम
वर्तमान में अतीत को हैं जी लेते!
संरचना भी भावी जीवन की,
बूते इनके ही हैं बना लेते!
पीढ़ी दर पीढ़ी,संस्कृति-सभ्यता,
संवहन के भी आधार हैं ये,
इतिहास भूगोल की संरचना का
इन्हीं से विस्तार है!
ज्ञान-विज्ञान के भी
होते हैं जीवन प्राण ये,
बिन शब्द जीवन का,
हो सकता कहाँ अनुमान है!!
रंजना बरियार
**********