'मैं विजय पताका फहराता था'

 

अनुपम चतुर्वेदी,

मां तेरे आंचल में बेखबर,

मैं सो लेता था।

जीवन की हर कठिनाई से,

लड़ लेता था।


ढाल रही हरदम मेरी,

मैं विजय पताका फहराता था।

हर पल मां मैं बेफिक्र रहा,

हंसता,गाता,मुस्काता था।

जब मैं दु:खी हुआ मां,

तब तुम अपने आंचल में ढक लेती थी।

देकर अपनेपन का सहारा,

सारे दु:ख हर लेती थी।

पर अब तेरे न रहने पर,

कौन दुलार करेगा मां?

मेरे सिर पर आशीष भरा,

कौन हाथ फेरेगा मां ?

कुशल-क्षेम तो दूर रहा,

अब हाल पुछने का समय कहां?

सब व्यस्त हो गए अपने में,

दिल की बातें किससे करुं बयां?

मां जिस जगह पर आप रहीं,

वह जगह न कोई भर सकता?

तेरे आंचल की शीतल छाया में,

कोई न मुझे सुला सकता।

बस एक गुज़ारिश है मेरी,

जिस जगह रहे मां तेरा डेरा।

आशीष सदा देती रहना,

हैं बहुत अकेला लल्ला तेरा।


अनुपम चतुर्वेदी,

 सन्त कबीर नगर,उ०प्र०

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