'अंतरिक्ष यान '
चैत की तपती दोपहरी में,
बंद कमरे के रौशन दान से,
जब कभी धूप के चंद कतरे,
धूल कण लिए प्रवेश करते,
समानांतर दीवारों को छूते,
तब मन पंक्षी उड़ान थामता,
मानो कमरा ही बन जाता,
तब एक सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड!
उड़ता मन का पंक्षी कहता,
ये धूल कण व धूप के कतरे,
से ही बनी हैं आकाशगंगाएँ,
असंख्य उल्कापिंडें व ग्रहें!
अरबों खर्बों वर्ष बाद कमरा
ही बन जाएगा एक ब्रम्हाण्ड,
धूल कण समेटे किरण पूंजें,
बनाएँगी कई आकाशगंगाएँ!
वैज्ञानिकों की दुरबीनों से दूर,
अंतरिक्ष की अनेक पहेलियाँ,
वर्षों से अनसुलझी गुत्थियाँ,
कमरे की दीवारों के अंदर ही
सुलझती नज़र आ जाएँगी!
वो भी क्या मस्त शमा होगा,
कमरे के अंदर ही जहाँ होगा,
अंतरिक्ष यान भी कहाँ होगा!
करवट लेते ही पहुँच मैं जाऊँ,
बुध से शनि, शनि से गुरू ग्रह
मंगल ग्रह से ध्रुवतारे के घर,
जहाँ चाहे दिल वहाँ मैं घूमूँ,
भाड़े की चिंता,न भूख का गम,
यान की चिंता न गाड़ी का ग़म,
बस होगा आनन्द का ही यान,
वही होगा हमारा अंतरिक्ष यान!
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तनहाइयों में
जब कभी तनहाइयों में होता मन,
हो जाते अतीत उजागर उर तल पर!
उभर जाती कई परछाइयाँ दृग तल,
दहशत में तब कर लेती बंद पलक!
परछाइयाँ पहुँच जाती सीधे उर तक,
धड़कन हो जाती दिल की द्रुतगामी!
खुलने लगते कई पन्ने एक एक कर,
कुछ कोरे कुछ होते लिखे हुए!
कुछ अमिट छाप,कुछ होते मिटे हुए,
कुछ अपठ,कुछ पर स्याही गिरे हुए!
बहने लगती अश्रुपूरित चक्षु निर्बाध,
धड़कन हो जाती दिल की द्रुतगामी!
फड़फड़ाते पन्नों में दिख जाता सहसा,
सूखा सा गुलाब,छोड़ता प्रेमरस छाप!
जुड़ जाते तार कई,गुलाब के छाप से,
भंगिमा डोलती ,साँसों की सरगम से!
सुरभित कर जाती मन की बगिया,
धड़कन भी तब हो जाती संयत उर की!
संयत मन कहता,नहीं होना तनहा अब,
विभीषिका का मंजर,होता अति बंजर!
जीवन चक्र,दिखाता सहर कभी तमस्,
नियम है नैसर्गिक,स्वीकारना है सहर्ष!
है करना नियंत्रित,निज इन्द्रियों को ही,
द्रुतगामी धड़कन, होगी संयत भी तभी!!
रंजना बरियार