डरते डरते निड़र हुए हैं
डराने को क्या
कोई खंजर लिया है
अब नहीं डराता
मौत का मंजर हमें
जब हमने जन्म ही
कातिलों की बस्ती में लिया है!
क्यों मरें चिंता में
अब इस जहां में बेवजह
तूफानों से जूझते हैं
झोंकों से रहते हैं बाखबर
खौफ से भी खौफनाक सैलाब
झेल हमने कस्ती में लिया है!
बेकार हैं ही वे
टूटे दिल लिए घूमते हैं
सरेआम बाजार में
मोल भाव करते हैं
खरीदने को दिल
उनका दिल तो
हमने सस्ती में लिया है!
कहते हैं वे
घाटे हैं बेसब्री में
क्यों बेकरारी में
जिंदगी की जोड़ तोड़
मुनाफे नहीं हैं
हमने तो जिंदगी में घाटे
यूं ही मस्ती में लिया है!
मौसम से क्यों
करें हम गिला
सर्दियों को तो हमने
यूं ही चट्टानों से
गर्मियों को आंधियों से
बरसात में भीगना
आवारा बादलों से
मटरगस्ती में लिया है!
बिगड़ी हुई गृहस्थी
फांका मस्ती के दिन
डरा न सके हमें
यदुवंशी जान थी बाकी
खड़े रहे थे हम
कौन कहता है कि
हम अपनी जान
मौकापरस्ती में लिया है।
श्रीकांत यादव
(प्रवक्ता हिंदी)
आर सी-326, दीपक विहार
खोड़ा,गाजियाबाद
उ०प्र० ।