भविष्य समय के प्रति आशावान - मन को ठौर

 एक प्रतिक्रिया -

( रुचि बहुगुणा उनियाल / काव्य संग्रह ) 

डॉ आदर्श

कोई  तो कारण रहा होगा कि पा. नेरूदा ने यह कहा कि कविता आदमी के भीतर से निकली हुई पुकार है ।

 तुलसी बाबा ने कहीं कहा है- भूमि परत भा ढाबर पानी । 

कि जहाँ ज़िंदगी के मटियाले प्रवाह में हमारी भावनाएँ बह निकलती हैं , वहीं काव्य की भावधारा अपने  समय की सच्ची गवाह भी बनती है । इसी लिए साहित्य की तमाम विधाओं की तुलना में कविता की अंतर्निहित मानवीय भावधारा कभी बासी नहीं होती । वह जीवन के सबसे निकट बह रही होती है  । 

काव्य संग्रह ‘ मन को ठौर ‘ की कवि रुचि उनियाल के लिए, ‘  कविता कुछ भी नहीं / बस कुछ एहसासों को ज़ुबान देने की कोशिश भर है । ‘ और यह भी कि ,’ अर्थ को शब्दों के कारागार से मुक्त करना मेरे लिए कविता है ।’ 

रुचि का मानना यह भी है कि जिन बातों को वह कभी बोल कर व्यक्त नहीं कर सकी , उन्हें उसने शब्दों में समेट कर कविता का रूप दे दिया , इस उद्देश्य के साथ - “ ताकि / तुम्हें याद रहे / कि खामोशी को भी / गढ़ सकती हूँ मैं । “ 

मतलब यह कि रुचि की कविता , खामोशी को गढ़ कर मूर्त रूप देने की पूर्ण सामर्थ्य रखती है ।

इस संग्रह की सारी कविताओं से गुजरते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि यह कवि पूर्णत:सचेत , सशक्त प्रतिरोधी क्षमतावान , और प्रेम में आकंठ डूबा समर्पित व्यक्तित्व है ।

रुचि का कवि एहसासों को सहज व्यक्त करने में सहज औ समर्थ है जब कि वह उसके अपने हों , लेकिन ,’ बड़ा मुश्किल है / उन तमाम अहसासों को / उकेरना शब्दों में / जो दूसरे पर गुजरें / तो लिखे जाएं ।’ इस सम्बंध में रुचि का तर्क देखें - 

‘ क्योंकि असल में हम / उन्हें महसूस ही कर सकते हैं / जी नहीं सकते कभी / जैसे कि / माँ पर कितना ही लिखो / फिर भी उसके अस्तित्व को / शब्दों में बाँधना नामुमकिन है / क्योंकि / ‘ प्रसव’ लिखना अलग बात है , / और ...../ ‘ प्रसव पीड़ा ‘ सहना अलग बात ।’ 

रुचि का यह काव्य संग्रह अपने दोनों बच्चों को यह दर्शाने के लिए समर्पित है कि उनकी माँ ने कैसे हर परिस्थिति में केवल प्रेम करना ही सीखा है । 

शब्दों की मितव्ययता के प्रति रुचि पूर्णत: सचेत है , यह सारी कविताओं को पढ़ समझ आ जाता है । 

अपनी बातों के दुहराव , फ़ालतू की लफ़्फ़ाज़ी से दूर रहते कवि अपनी कविताओं के लेखन का उद्देश्य स्वान्त:सुखाय ही मानता है , यह समझते हुए कि , ‘ मेरे मौन को संवाद करना आ गया है ।’ 

प्रेम करना उतना कठिन नहीं होता जितना उस भाव को शब्द देना । रुचि का कवि अपने अद्भुत अंदाज से इसे व्यक्त करता है -

‘ तुम्हारे लिए / जो अपने हाथों से बुन कर रखी है / वो स्वेटर नीले रंग की ?/ पहन लेना कभी - कभी / मन न होने पर यूँ ही / मेरी छुअन लिपटी है / उसके रेशों से ....../ उसकी गरमाहट में मेरे स्नेह की / ऊर्जा महसूसना तुम ।’ 

प्रेम की शब्दावली ऐसी भी है रुचि की - 

‘ लिख रही हूँ / एक चिट्ठी बिना / नाम लिए तुम्हारा / और बिना तुम्हारे पते के / कुछ लापता होते रिश्ते / ऐसे भी जिलाए जाते हैं न ।’ 

इसी प्रेम के अन्तर्गत कवि स्पर्श की भाषा के महत्व से गूढ़ रूप से भिज्ञ है - 

‘ स्पर्श की भाषा / कितनी विचित्र / कुछ भी बोलने की /प्रतिबद्धता समाप्त ।’ 

कवि की प्रेमानुभूति यहाँ भी शब्द पाती है जब वह महसूसता है कि - 

‘ इंतज़ार रहता है / पलंग पर बिछी चादर को / उन पलों का / जब किसी की याद में / करवटें बदलते -बदलते / सिलवटों पर लिखी जातीं हैं / इंतज़ार की खूबसूरत कविताएँ / जब तकिया किसी की /खुली काकुलों की / ख़ुशबू में नहाता है रातभर ।’ 

विरह , प्रेम का ही पक्ष है - ‘ जब तुम चले जाते हो / कहीं दूर / मैं पूरे घर में फिरती हूँ / बस आँखें नहीं लौटतीं / देहरी से भीतर / तुम्हारे आने तक ।’ 

यह भी कि - 

‘ जेठ दिनों में झुलसती गर्मी में / जब सूख जाती हैं / सारी छोटी नदियाँ / तब भी तुम्हारा मन भिगोने के लिए / मेरी आँखें रखती हैं / समंदर पूरा समेटकर / ताकि सूखने से पहले ही / रिश्तों में नमी और नमक बना रहे ।’

और यह भी कि - 

‘ अचानक लम्बी हो जाती है / वो रात और रातों से / जिसमें अगले दिन तुम्हारे लौटने का / इंतज़ार पुतलियों में ठहर जाता है / सहयात्री बन के नींद का ।’ 

कितनी गहराई से पारस्परिक समझ विकसित होती है कि कवि कहीं स्पर्श की भाषा को शब्द देता है तो कहीं मौन  की - 

‘ दर्द और तकलीफ़ को / होंठों से पहले / आँखों में पढ़ते हो तुम / चुप्पियाँ आँखों की भाषा हैं ।’ 

पहाड़ जितने दूर से लुभाते हैं , सुंदरता के कारण मन मोह लेते हैं , और प्रदूषण मुक्त लगते हैं , वैसी स्थिति अब बाज़ारीकरण की वजह से तेज़ी से बदल रही है । उनका दोहन भी बुरी तरह से होता जा रहा है तमाम जागरूकता फैलाने के बावजूद । शहरी मैदानी क्षेत्रों से नितांत भिन्न पहाड़ी स्त्री का जीवन कैसा होता है , एक ठेठ पहाड़न व सम्वेदन शील,  रुचि जैसा कवि ही इसको सटीक शब्दों में टाँक सकता है । तभी तो रुचि अपनी कविता , ‘ पहाड़ी औरतें ‘ में कहती हैं - 

‘ पहाड़ की औरतें / सूरज को जगाती हैं / मुँह अंधेरे / बनाकर गुड़ की चाय / और उतारती हैं / सूर्य की रश्मियों को / जब जाती हैं धारे में / भर लेती हैं सूरज की किरणों को / जब भरतीं हैं / ‘ बंठा ‘ धारें के पानी से ।’ 

आज के निर्मम कोरोना काल में , जब इस देश को लाशों के ढेर में बदलते , हमें देखना पड़ रहा है ।हम स्वयम् को इतना असहाय कभी महसूस न कर पाये थे । ऐसा लगता है यहाँ कोई सरकार नहीं , कोई प्रधानमंत्री नहीं , कोई व्यवस्था नहीं बची रह गई है ।सब को अपने -अपने हाल पर छोड़ दिया गया है ।ऐसी स्थिति में भी रुचि का कवि समय पर शंका नहीं कर पाता - 

‘ फिर भी ....../ नियति और समय चाहे / जितने निर्मम और निरपेक्ष हों / समय को इतनी शंकालु / दृष्टि से देखना उचित नहीं ।’

भविष्य के प्रति यह कविता हमें सदा आशावान रहने की प्रेरणा देती है - 

‘ जबकि वह खुली आँखों से / देख रहा है / कि ....फूल समय पर खिल रहे हैं / पतझड़ के बाद / वृक्षों ने नवल पत्र परिधान से / सुसज्जित कर लिया है स्वयम् को / समय ने एक / थपकी सी दी है उसके काँधे पर / उस एक थपकी में / कितना आश्वासन था ।’ 

पहाड़ी स्त्री जितना महत्व पानी का समझती है उतना कोई दूसरा नहीं । वह अपनी मेहनत से सबके मन सींचती चलती है । बावड़ी से घर तक रोज़ ढोती हैं वह सर पर रख कर पानी की बाल्टियां । वह ही जानती है सूखे खेतों को सींचने की कला । ऐसी ही स्त्री की क़लम से सृजित हो पाती हैं ऐसी पंक्तियाँ - 

‘ पानी ने बचा कर रखी हैं / सृष्टि की सबसे पुरानी लिपियाँ / स्पर्श की / कभी नदी से जाकर / समुद्र में मिले पानी को छूना / सब कुछ ठीक वैसा ही लिपिबद्ध मिलेगा / जैसा तुमने लिखा था ।’ 


कुल मिला कर ऐसा लगता है इस संग्रह की कविताएँ हमें जीवन के विभिन्न पहलुओं की यात्राएँ कराती हमारी सुप्त सम्वेदना को झकझोर पाने में पूरी तरह सक्षम हैं ।इनमें उभरा विद्रोह व विरोध पूरी तरह स्वाभाविक लगता है । प्रकृति के विभिन्न पहलू इनमें खुलते हैं और साथ ही मिलती है हमें स्त्री की जुझारू क्षमता । इनमें निर्बल , पीड़ित , आँसू टपकाती , सहानुभूतियाचक , निज सौंदर्य से रिझाने की प्रवृति वाली स्त्री के दर्शन हमें कहीं नहीं मिलते ।यहाँ ऐसी स्त्री है जो पूर्णत: प्रेम समर्पित है , कर्मठ है , जो भली प्रकार जानती है कि - ‘ औरत को मिली / शक्ति ध्राणेंद्रि के सिवा आँखों और स्पर्श से भी / सूँघ लेने की / सडांध मारते इरादों को ।’ 

‘ शब्दों में सिमटी परिभाषाएँ ‘ ,’  पहाड़ी औरतें ‘, ‘ समय पर शंका ‘ , ‘ धूप की कविता’ , ‘ धरती का विलाप ‘ , ‘ वर्चस्व ‘ , ‘ कविता कुछ नहीं ‘ , ‘ सूर्यास्त ‘ , ‘ स्पर्श की भाषा ‘ ,’ आओ तुम्हारा स्वागत है ‘ , ‘ इंतज़ार ‘ ,’ आँखें ‘ ,’ सुख और दुख ‘ , ‘ ईश्वर आतंकित है ‘ ,’ बेटी के पिता ‘ , ‘ सहमा सकुचा प्रेम ‘, ‘ शरारती लड़की ‘ , और ‘ ईश्वर तुम अपने होने से इंकार कर दो ‘ , कुछ ऐसी कविताएँ है जो समूची मुझे अपने निकट लगीं व न केवल पसंद आईं , अपितु जिन्हें उदाहरण रूप में मैं अपने पाठकों तक पहुँचाना चाहूँगा । 

अपने पहले इतने स्तरीय कविता संग्रह पर प्रिय रुचि को हार्दिक बधाई । उनके आगामी संग्रहों की हमें प्रतीक्षा रहेगी ..........


डॉ आदर्श / उधमपुर

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