प्रियंका दुबे 'प्रबोधिनी'
हाँ!!! हाँ!!
जानती हूँ......,
नही है इलाज
तुम्हारे दर्द का
मेरे पास पर.....,
पर, फिर भी....,
तुम मुझसे कुछ भी
छुपाया न करो।
क्योंकि.......,
क्योंकि मैं पढ़ लेती हूँ,
तुम्हे!!!
बहुत दूर होकर भी।।
तुमने ही तो कहा था,,, कि-
कभी-कभी मुझे भी
पढ़ लिया करो!!!
हाँ.....,अब मैं
पढ़ती हूँ हररोज
तुम्हारे वो एहसास,
जो मेरे लिए नही होते!
तुम्हारा वो बातों-बातो में
मुझसे इकरार,
जो सच में,,,
मेरे लिए नही होता।
यहाँ तक कि...,
तुम्हारा गुस्सा भी
मेरे लिए नही होता।
तुम्हारे ख़्वाबों की
उस कोमल कली को
जरा भी नही है.....,
हाँ,,,सच में नही है,
तुम्हारी परवाह!
जिसका स्पर्श
पाना चाहते हो
हाँ..., सच में,,,,
तुम चाहते हो कि,,,,
तुम्हारे एक स्पर्श से
वो खिलकर फूल बन जाए और...
और तुम उसकी खुशबू में
खुद को मदहोश कर जाओ
पर........,
पर,,,नही होते
तुम्हारे सुनहरे स्वप्न
मुकम्मल कभी भी,
न जाने क्यों???
घुटते है,,,विचारों में!!
रिसते हैं,,,तुम्हारी रगो में!!
और...फिर!!,
तुम मौन हो जाते हो
हाँ ....,
सच ही तो है
मैं पूछती हूँ कि.......,
कि,,,, तुम कैसे हो??
और.......,
और तुम ....,
तुम,,, कहते हो, कि-
"""मैं ठीक हूँ।"""
फिर,,,,मैं समझ जाती हूँ कि-
तुम सच में,,,
ठीक नही हो।
यह जीवन का सत्य है,
जो पास होता,
वो.. अपना नही होता,
और......,
और, जो अपना होता,
वो.. पास नही होता।
कुछ रिश्ते, टूटने के लिए
जूड़ते हैं।
कुछ साथ, छूटने के लिए
मिलते हैं।
हाँ.....सच में,,
""और नही तो क्या??"
मैं झूठ नही बोलती।
तुम......,
तुम, भी मत बोलो!
मुझसे नही तो कम से कम
उस परमात्मा से तो,
कह लो!
अपनी परेशानी!!
क्योंकि......,
उसके पास हैं
हर मर्ज़ का
मुकम्मल इलाज।
प्रियंका दुबे 'प्रबोधिनी'
गोरखपुर, उत्तर प्रदेश!