अंजना झा
वक़्त का पलरा भारी है अभी
सांसों की डोर थमी है कई।।।
अपनों का साथ भी छूटा है
तो खुशियों का दामन अभी भी कहीं रूठा है।।
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न जाने क्यों अजीब सी बेचैनी है मन में
न जाने क्या अजीब भयावह रूप बसा है मन में ?
सोचा था अब तो अन्त होगा यहाँ।।।
उन नकारात्मक विचारों का होगा खात्मा यहाँ
पर कब वक़्त फिर पलट गया ।।
तो बैठे- बैठे आधी पृथ्वी को डस गया।।
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हर सवेरे बस यही इन्तज़ार होता है
तो चलती खबरों में कुछ अच्छा सुनने का आस होता है
वही दिनचर्या से अब मन भर चुका है मेरा,
तो हर ढलती शाम एक नई उम्मीद के साथ जाता है मेरा।
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इस महामारी में मानव के कई रूप दिखे हैं
तो कभी नायक बन दूसरों की मदद से ना पीछे हटे हैं
दूसरी प्रजाति ने भी अपना डंका खूब बजाया है
तो कालबाज़ारी कर खूब माल कमाया है।।
कम से कम अपनों को तो छोड़ देते ओ दुष्टों -
कम से कम अपनों को तो छोड़ देते ओ दुष्टों
बददुआ ना सही, दुआ ही ले लेते ओ दुष्टों।।
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क्या कहें? सबने राम भरोसे छोड़ते हुए
अपना गिरेबान बचाया है
तो इस संकट काल में
बस अपनों ने ही दिलासा दिलाया है।।
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वक़्त है जनाब , आज इसका पलरा भारी है
इस शान्त चल रही दुनिया में
इसने ही तांडव मचाया है।।।।
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चलो आज इस वक़्त से कुछ सबक सीख लेते हैं
आगे भविष्य की तैयारी अभी से कर लेते हैं।