साम्प्रदायिकता एक जहर है

 

श्रीकांत यादव

जिस दिन भरा न पेट हो, 

घर में न एक भी दाना हो |

चर्चा मजहब पर कर लेना,

रोटी न कहीं ठिकाना हो ||


धर्म ,पंथ ,ईमान हमारा, 

जाति याद तब आती है |

भूख की तडपन से तृप्ति, 

रोटी जब कर जाती है ||


अन्न इस मिट्टी का खाते, 

जल पीते धरती का एक |

विचार नहीं है एक हमारा, 

होते झगड़े रोज अनेक ||


धर्म सहिष्णु देश हमारा, 

मजहब के सबके आजादी है |

वहीं नित्य के झगड़े क्यों , 

जहाँ मिली जुली आबादी है ||


शिक्षा दीक्षा की कमी जहाँ, 

वहीं वर्चस्व अहम टकराते हैं |

लहू लुहान देश की छाती होती, 

निरअपराध जन पिस जाते हैं ||


धर्म मजहब के कुछ ठेकेदारों का, 

मंतव्य बहुत संदिग्ध है |

निहितार्थ अपने लडाते रहते, 

कुछ कहावत ऐसी प्रसिध्द है ||


जब देश एक इंसान नेक, 

आवश्यकता भी एक जैसी है |

हम एक दूसरे के पूरक हैं, 

वैमनस्यता क्या हमारी ऐसी है ||


बच्चों के भविष्य की सोचो, 

मत नफरत की फसल लहराओ |

पीढियां काटती रह जाएंगी, 

मत कातिल अमन का कहलाओ ||


गले मिले दिल मिल जाता है ,

बर्फ रिश्तों की जमी पिघलती है |

आंखों से अश्क ढरकते जब, 

तब तनावों से मुक्ति मिलती है ||


(श्रीकांत यादव)

प्रवक्ता हिंदी

आर सी-326, दीपक विहार

खोड़ा, गाजियाबाद

उ०प्र०!

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