राकेश चन्द्रा
काश ! तुम समझ पाते
कि अपने पड़ोसी की बौनी
छाया से बचने के लिये
ऊॅंची दीवारें जरूरी नहीं कि तुम्हारे
मुस्कुराते मुखौटे के पीछे
का खालीपन-हमें अपनी हीनता
का अहसास करा देने के लिये
काफी है.
ये चिकनी-चुपड़ी दीवारें
मेरे टूटे-फूटे आंगन का मजाक तो
उड़ाती रहीं- पर खुरदुरे यथार्थ पर
खड़ा मैं.
दुःख की अनुभूति से परे था]
और मेरी आत्मा
चहार-दीवारियों में बन्दिनी
न होकर आज भी है उन्मुक्त
अपने गंतव्य की आकांक्षा में
प्रतीक्षारत्.
राकेश चन्द्रा
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