लकड़ी



नंदिनी लहेजा

देख लकड़ी को सोच रहा मैं ,कितना गहरा नाता हमारा

जन्म लिया तब से ऐ लकड़ी मुझको मिला तेरा है सहारा

नन्हा बालक जब था मैं माँ पालने में सुलाती थी

तुझ से ही तो बना था वह जिसमें माँ मुझे झूलाती थी

हुआ बड़ा थोड़ा पापा ले आये लकड़ी का बना घोडा

टिक-टिक करता करता मजा बड़ा मुझे आता था

जाने लगा विद्यालय जब मैं फिर तेरी गोद को मैंने पाया

तुझसे बानी बेंच पर बैठकर की पढाई,और काबिल मैं बन पाया

सफर जीवन का चलता रहा संग मुझे अनेकों रूप में तेरा साथ मिला

विवाह हुआ,हुआ गृहप्रवेश ,चन्दन के रूप में लकड़ी तुमसे शुभ हवन हुआ

आज हुआ वृद्ध तो भी तुमने साथ मेरा नहीं छोड़ा,

बन लाठी मेरे संग चलती है देती है मुझको सहारा

जानता हूँ जब अंत समय मैं पहुँगा मृत्यु को

तेरी शैया मिलेगी मुझे और तेरे द्वारा में त्यागूंगा में इस जग को


नंदिनी लहेजा

रायपुर(छत्तीसगढ़)

मौलिक स्वरचित एवं अप्रकाशित

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