ऋषि तिवारी"ज्योति"
तब से
जिंदगी में सबके
गम होने लगे हैं ।
जब से
शादियों में फेरे
कम होने लगे हैं ।
सात फेरे थे,
उनके
वचन सात थे ।
एक दूजे की,
हाथों
में हांथ थे ।
पकड़ हाथों का
तब से
कम होने लगे हैं ।
जब से
शादियों में फेरे
कम होने लगे हैं ।।
मांग सिंदूर से
जब रहते थे
पूरे भरे ।
सभी रहते थे
रिश्तों के
डोर में बंधे ।
सबके परिवार
तब से
बिखरने लगे हैं।
जब से
शादियों में फेरे
कम होने लगे हैं ।
जब से फैसन
है आया
सब अंधे हुए ।
रिश्ते नातों
में भी
जब से धंधे हुए ।
मंडपों के
जमाने
चले हीं गए ।
जब से
शादियों में फेरे
कम होने लगे हैं ।।
पति-पत्नी को
रिश्तों में
ना विश्वास है ।
सास को भी
बहू से न
कुछ आस है ।
तब से
अपने भी पराए
लगने लगे हैं ।
जब से
शादियों में फेरे
कम होने लगे हैं ।।
अब फूहड़ता
की हद
रिश्ते नाते हुए ।
फर्क पड़ता नहीं
भयाहू
भसुर को छुए ।
तब से
असंतुलित
घर बार होने लगे हैं ।
जब से
शादियों में फेरे
कम होने लगे हैं ।।
✍️ ऋषि तिवारी"ज्योति"
चकरी, दरौली, सिवान (बिहार)