मां का आंचल

 !! मेरा हृदय उद्गार !!



गिरिराज पांडे


याद करो वह मां का आंचल पलते थे जिस आंचल में 

जब जब संकट आ जाता था बच जाता था आचल मे

 बचपन में जीवन दिखता था केवल मां की आंचल में 

नहीं कभी भी चिंता रहती जब रहते मां के आंचल में

 जब हम खेल-खेल में ही आपस में लड़ जाते थे

 मार के दूजे को चुपके से घर आकर छुप जाते थे 

अगर दौड़ कर पीछे से वह आ जाता था घर में तो

 मैं भी दौड़ के छिप जाता था अपनी मां के आंचल में 

तब मां का आंचल ही बनता था एक सहारा जीवन में 

नहीं किसी का भय होता जब रहते मां के आंचल में 

रातों में सोने के पहले मां कोई कहानी बुनती थी 

सुनकर करुण कहानी उनकी आंख मेरी भर आती थी

  कुछ किस्से को सुनकर के हम अंदर से डर जाते थे

चिपक ठिठुर कर छुप जाता था अपनी मां के आंचल में 

बुलेट प्रूफ दुनिया का सारा छिपा हुआ है आंचल में 

सोच याद कर बीती बातें कर जाती हैं घर मन में

 बचपन में लगती बहुत चोट जब उछल कूद हम करते थे 

मरहम पट्टी वह कर देती थी फूक फूक कर होठों से 

ठीक हो गया रोओ मत छुपा लिया फिर आंचल में

 दर्द हमारा ठीक हो गया प्यार मिला जब आंचल में 

आंचल से बढ़कर कवच सुरक्षा कभी नहीं हो सकती है 

मां के आंचल में हरदम ही स्थान सुरक्षित होती है

 मां का आंचल ही जीवन का बुलेट प्रूफ हो सकता है

 बुलेट प्रूफ तो जीवन का होता है मां के आंचल में 

निस्वार्थ भाव ही भरा हुआ होता है मां के आंचल में 

कष्ट हुआ यदि मुझे कभी तो खुद मा ही रो लेती थी 

वह मेरी हर गलती को अपने सर पर ले लेती थी 

अब तो सब कुछ भूल गया हूं अपने बीवी बच्चों में

 नहीं मिला है नहीं मिलेगा जो प्यार था मां के आंचल में 

स्वर्ग तो मिलता है बचपन में केवल मां के आंचल में


 गिरिराज पांडे

 वीर मऊ 

प्रतापगढ़

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