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सतेन्द्र शर्मा 'तरंग'अपने परों को खोलती चीं-चीं बोलती चिड़िया।
खुले आसमान में निर्विघ्न डोलती चिड़िया।।
फुदकती चहकती मिलती मुझसे,
अरुण बेला में घर के उपवन में,
स्वप्निल आंखों में लिये जीवन्त चाहतें,
ढूंढे निर्मल दाना-पानी आंगन में,
सुहानी सुबह में शुद्ध हवा ढूंढती चिड़िया।
शिकायतें प्रदूषण की बोलती चिड़िया।।
भरी हुई नव उर्जा से चुगती दाना-दाना,
देता उत्साह उसका तिनका-तिनका लाना,
उद्यमता उसकी सन्देश यही दे जाती,
हो जाये कुछ भी ऐ मानव! नहीं घबराना,
कर्मठता से घरौंदा बनाती चिड़िया।
कहानी अपने संघर्ष की बोलती चिड़िया।।
मोहित हुआ एक दिन चिड़िया पर मन मेरा,
पास सदा रखने को बनाया पिंजरे का घेरा,
आकर बैठी लेने दाना पिंजरे के अन्दर,
देख बंधन में खुद को आंखों से बहा समुन्दर,
चीं-चीं करती कातरता से बिलखती चिड़िया।
कुटिलता से मेरी आहत व्यथा बोलती चिड़िया।।
भाषा उसकी समझ में मेरी कुछ ना आये,
मार्मिकता ने फिर भी अर्थ सब समझाये,
परतन्त्रता का दर्द हृदय को द्रवित कर गया,
खोल द्वार पिंजरे का पाप से मैं बच गया,
पर आंगन है सूना तबसे ना आयी चिड़िया।
कुत्सितता से मेरी पल में हुई परायी चिड़िया।।
ऊंचे आसमान से मुझे आवाज देती है चिड़िया,
टूटा विश्वास कभी पास नहीं आती है चिड़िया,
कभी सूना आंगन कभी खुद के कर्म देखता हूं,
मानव होकर मैं क्यों नहीं मानव-धर्म देखता हूं,
निष्ठुरता का मेरी अहसास कराती चिड़िया।
गुजरती ना पास से ना मुझसे बोलती चिड़िया।।
अपने परों को खोलती चीं-चीं बोलती चिड़िया।
खुले आसमान में निर्विघ्न डोलती चिड़िया।।
**सतेन्द्र शर्मा 'तरंग'
११६, राजपुर मार्ग,
देहरादून (उत्तराखंड)