कवियित्री आराधना प्रियदर्शनी की रचनाएं


मां बाप से बिछड़े ना संतान

चुपचाप कभी विराने में,

बैठे यही सोचती हूं,

कभी आभार प्रकट करती हूं लम्हों का,

कभी क्रोध में आकर कोसती हूं।


           विवेक संयम रहा ईतना,

           जिसे कोई उलझा ना सका,

           पर है क्या पहेली ये जि़ंदगी,

           जिसे कोई सुलझा ना सका।


जो जानते तक नहीं हमें,

रोते हैं हम ऐसे फणकार के लिये,

निःस्वार्थ छलकतें हैं जज़बात,

ना किसी मतलब ना व्यापार के लिये।


        खुशियां देखी हैं अपार,

   जगमगाती हुई सफलता भी देखी है,

       कभी मायूस सी शाम,

 तो कभी निर्मम विफलता भी देखी है।


कितना अनमोल एहसास होता है,

प्रेमपूर्ण किसी के आगे झुक जाना,

होती है कैसी वो बेचैनी,

होता है क्या सांसों का रूक जाना।


            लाखों हादसे देखते हैं हम,

            अखबारों और खबरों में,

        क्या हलचल कोई सुनी है कभी,

             श्मशानों या कब्रों में?


सबकुछ तो याद नहीं रहता पर,

कुछ सशक्त तथ्य तड़पाती है,

कितनी यातनाओं से गुजरते होंगे वो मां बाप,

जिनसे उनकी संतान जुदा हो जाती है।


हिम्मत देना उनको सांई,

रहना बनकर उनकी आस,

कोई व्याख्या नही उस मर्म का,

कोई शब्द नहीं है मेरे पास।

                    

सबका मालिक एक


क्या कहना उस रूप का,

नयन ज्योत के धूप का,

क्या कहना उस दया दर्पण का,

क्या कंहू प्रत्यक्ष उस दर्शन का|


ऑंखों की रौशनी बनकर,

जीवन का ध्येय बनकर,

हृदय पे छाई वो मंगल मूर्ति,

मेरे ही मन का श्रेय बनकर|


वो देखे सबको एक समान,

उनके हैं भक्त अनेक,

वो सबकी कामना पुर्ण करें,

वो सबका मालिक एक।


नारी


मिलती है बस कांटों की डगर,

और कहलाती है जो फुलवारी,

पाबंदियों के ज़ंजीर में कराहती है जो,

वो कहलाती है नारी|


    सहती है घुट घुटकर हर दुःख,

   और कहतें हैं पली नाज़ों में प्यारी,

     जो बंधी होती हैं सीमाओं में,

      दबी होती है रिवाज़ो से नारी|


करवट लेती है बंदिशों में वो,

और कहते उसे आज़ाद परिन्दा है,

बस गुलामी करती, शोषण सहती,

सोचो, नारी कैसे जिंदा है |


         उसे संज्ञा देते हैं जीवन्तता की,

          बस सौंदर्य की मूर्ति लाश सी,

          एक नारी से पूछी जाती है,

          आवागमन उनके ही सांस की|


कभी दी नही जाती आज़ादी,

युवकों की तरह पूरे हक से,

चाहे वो सर्वश्रेष्ठ हो जग में,

पर देखा जाता है उन्हें शक से|


       इनसे हंसती है हर बगिया,

       खिलती है हर फुलवारी,

      फिर भी ईलज़ामों से होकर बेबस,

       है रोती शोषण की मारी|


जिसकी सच्चाई स्वच्छता भी,

पापी दुनिया से हारी है,

प्रमाण ना जुटा पाए जो वो,

क्यूँ चरित्रहीन फिर नारी है?


    जिसका सौंदर्य ही है दुश्मन उसका,

    बैरी सूरत प्यारी है,

    शत्रु है भोलापन जिसका,

    वो अंजान अभागन नारी है |


जिन्हें बलिदान करना पड़ता है सबकुछ,

अपनी ईच्छा देनी पड़ती है,

क्यूँ नारी को ही स्वच्छता की,

परीक्षा देनी पड़ती है |


         छीन लिया जाता है जिनसे,

         उनके हर अधिकार,

       नफरत ही आता है उनके हिस्से,

        कभी मिलता नही है प्यार|


नही समझी जाती नारी भावना,

उनसे किया जाता है खिलवाड़,

उनके मधुर व्यवहार से भी,

किया जाता है व्यापार |


              जिसके दम पे है ये दुनिया,

              है ये श्रीष्टी सारी,

              हर निर्माण की जननी वो,

              जो कहलाती है नारी |

         

आराधना प्रियदर्शनी

 बेंगलुरु 


कर्नाटक


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