साहस मन का
साहस मन का हो ऊंँचा नभ सा फिर तो पर्वत शीश झुकाते हैं!
बाधाएँ सब मांँगे पानी संकट सब छूमंतर हो जाते हैं!
साहस के पर्वत को देख दुख के बादल भी घबराते हैं!
पर्वत श्रेणी के हिम पिघल रणबाँकुरों को ऊष्मा दे जाते हैं!!
साहस की लठ पकड़ हनुमान सागर भी लाँघ जाते हैं!!
साहस मन का हो ऊंँचा नभ सा सागर पर पुल बन जाते हैं!!
समस्याएंँ सब बन जातीं राई रेत पर सरसों उग आते हैं!
विपत्तियांँ सब हो जाती बौनी लक्ष्य पग को चूम जाते हैं!!
साहस की पाकर संजीवनी हम मृत्यु से लड़ जाते हैं!!
साहस मन का हो ऊंँचा नभ सा गिरि को उंगली पर उठाते हैं!
प्रचंड तूफान हो राहों में कितने सबको पग तले कुचल जाते हैं!
कड़क रही हों बिजलियाँ हजारों राही गंतव्य को निकल जाते हैं!!
हों अभाव जितने भी राहों में पर्वत का सीना चीर जाते हैं!
साहस मन का हो ऊंँचा नभ सा *दशरथ मांँझी पर्वतसखा* बन जाते हैं!!
साहस के मद में चूर हो राणा घास की रोटी खाते हैं!
बांँध पीठ पर बालक लक्ष्मीबाई विकट शत्रुओं से भिड़ जाते हैं!!
जंगलों की खाक छान छान के क्रांतिवीर सब सुख तज जाते हैं!
मांँ भारती की शान के हित फांँसी को हंँस गले लगाते हैं!!
सावित्री के साहस से सत्यवान यमराज से छूट जाते हैं!
नचिकेता का था साहस इतना स्वर्ग के द्वार खटखटाते हैं!!
साहस हिन्दशूरों का नभ सा सवा सौ अरि को एक कुचल जाते हैं!
साहस मन का हो ऊंँचा नभ सा फिर सारे वायरस मर जाते हैं!!
साहस हिम्मत शौर्य युक्त तेजस्वी जन जग में आदर पाते हैं!
साहस मन का देख गगन सा युग युग तक लोग शीश नवाते हैं!!
साहस
इतना ऊंँचा
रखो साहस बंधु!
फटके नहीं
पास कोई विपदा!
राई न बने
कभी पर्वत सम!
मुस्कुराओ कि
तुम हो अविनाशी
भू की संतान!!
डरो ना तुम यूँ ही
आम जन सा!
तुम भारत वीर!!
कांँपते शत्रु!!!
प्रचंड वीरता से...
छोड़ते रण!
मांँ की गरिमा हित
वरते मृत्यु!
कांँटे बिछे हों
राह में जितने भी
डरे न तुम...
साहस सिंधु!
के तुम पारावार
विघ्न बाधाओं
से खेलते हो तुम!
तेज उनका
हरते सदा तुम!!
अमृत पुत्र!
अदम्य जिजीविषा...
तेरी सदा ही!
जीता हर समर!!
श्रेष्ठ मानव!
यशस्विनी धारा के!!
तव साहस!
संसार में वंदित!!
मृत में फूँके प्राण!!!
डॉ पंकजवासिनी
असिस्टेंट प्रोफेसर
भीमराव अंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय