कवि महेन्द्र सिंह राज की रचनाएं

हुंकार भरो वीर बालाओं

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हुंकार भरो तुम वीर बालाओं

तब ये नर राक्षस कापेंगे।

हर गली मुहल्ले में बैठे हैं, 

ताण्डव कर दो तब भापेंगे।।


मानवता इनमें ना शेष बची, 

दानवता के ये अनुयायी है। 

दुःशासन सा चीरहरण करते

दूर्योधन से कामी के भाई है।।


जयद्रथ कीचक को मात दिये,

अब रावण भी हार गया इनसे।

रणचंडी बन लहू पियो इनका,

कांप रहीं हर बाला जिनसे।।


अब जौहर का समय जा चुका, 

हर कर में खूनी तलवार गहो।

आत्म समर्पण कर दुष्टों की,

मखमली शैय्या पर नहीं ढहो।।


जब चूडी़ वाले कोमल हाथों को,

वपु वज्र सा कठोर बनाओगी।

कफन बांध कर अपने सिर पर,

काली सा कर खड्ग उठाओगी।।


तब ये बहशी बलात्कारी राक्षस, 

भीख अपने प्राणों की मागेंगे।

डर के आगे ही जीत होती है,

तभी तेरी ताकत को पहचानेंगे।।


इसलिये कहता हूं वीर बालाओं,

खुद अपने बलकी पहचान करो।

कोई नापाक हाथ तुझतक पहुंचे,

उसके पहले धनुतीर संधान करो।


तुम अबला नहीं अब सबला हो,

जल, थल, नभ में गूंजे तेरा गान।

कब तकअबला बन शोषितहोगी,

खुद -बखुद बढा़ओ अपना मान।।



 काशी काबा एक समान

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वेद पुरान से लेकर, 

उपनिषदों तक धाया।

लेकिन जीवन का मतलब

अब तक समझ न आया।।


ये आत्मा परमात्मा का,

विश्लेषण बहुत जटिल। 

कितनों ने समझाया पर, 

मेरे मन को नहि भाया।। 


कहते हैं आत्मा अमर है,

पर नाशवान यह देह।

हो सकता है जानकर यह,

ज्ञानी नर बन जाय विदेह।।


रामचन्द्र ने सत्य धर्म को,

मानव का कर्म बताया। 

श्री गीता में प्रभु केशव ने

कर्म को ही धर्म बताया।। 


जहां कबीर दास जी ने,

निर्गुण ज्ञान समझाया।

वहीं गोस्वामी तुलसी ने,

सगुण का पाठ पढ़ाया।।


ब्रह्मा की कोई पूजा करता 

कोई शंकर जी को पूजे।

कहीं कहीं विष्णु मन्दिर में

घडी़ ढोल नगाडा़ गूंजे।।


कहीं शक्ति की पूजा होती,

वेद पुरान पढ़े जाते।

और कहीं पर भक्त गण,

इन्द्र वरुण की गाथा गाने।। 


अवध पुरी में राम -सदन,

मथुरा में केशव का धाम। 

पुरा काशी में विराज रहे हैं 

शिव शंकर है जिनका नाम।। 


आवागमन से मुक्ति मिले,

उस राह को जान न पाया। 

जन्म मरण किस हेतु यहां, 

अब तक पहचान न पाया।।


कोई अल्ला की नमाज पढे़,

कोई पूजे जय श्री राम

दोनों में कोई अन्तर माने

काशी काबा एक समान।।


महेन्द्र सिंह राज 

मैढी़ चन्दौली उ. प्र.

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