प्रेम का अचार
उन्होने संभाल लिए पुनःआचार के डिब्बे
उन्हें दिखा दी धूप अम्बर तले
और फिर तोड़ लाए है पापा कच्ची अम्बियाँ
फिर बनाने लगे है दोनों मिलकर अचार
कभी लड़ते तो कभी प्रेम की
हल्की मुस्कान बिखेरते
कभी उसके बचपन को याद कर
नेत्रों के मोती को एक-दूजे से छुपाते हुए
अभी न सही
कुछ दिन बाद आयेंगी बिटिया
या हम ही मिलकर आ जायेगें
खट्टी-मिट्ठी यादों का पिटारा ले
हम ही उसकों देख आयेगे
सोच मुस्कुराते है दोनों।
सभ्यता और आधुनिकता
एक सभ्यता का अंत
और एक नई सभ्यता की
शुरूआत हो रही है
कुछ दे सीख प्रेम की
और कुछ अपने ही साथ
हुनर लिए जा रहे है।
नही चाहते वो बाँटना
अपनी अक्लमंदी दूसरों को
वो सिर्फ जीर्ण-शीर्ण विचारधारा सौंप
स्वयं को दफना रहें हैं।
और कुछ स्वयं को झौंक आधुनिकता में
हर्ष का परंचम लहरा रहे है
वे प्रसन्न है स्वयं के बदलाव से
और धीरे-धीरे इस आधुनिकता में
अपनी सभ्यता की छाप छोड़ रहे हैं
बड़े प्रेम से।
ललिता पाण्डेय
दिल्ली