ऋषि तिवारी"ज्योति"
जल में जलता जो गया,पूरा जला न कोय ।
जल से जो जल जात है,अंग बचे न कोय ।।
ऋषि जगत में देखिए,सब नजर न होत समान ।
वृक्ष में कुछ को काठ दिखे, कुछ देखत है भगवान।।
चाल चाल में भेद है,सब चाल न दूर को जात ।
चले चाल कुछ कोसों योजन,कुछ चले खड़ा रह जात।।
मिथ्या हम नहीं बोलते, ऋषि कहे सब कोय ।
सबको सच प्रिय होत है,पर माने ना जग कोय ।।
काल काल कल काल है, होत अनेकों काल ।
ऋषि बात कहि जात है,पल में बदलत काल ।।
वो रंग बड़ा दुःख देत है, जो करे रंग में भेद ।
सब रंगों का काज है, कैसा किससे खेद ।।
लाल लाल सब लाल है, मैं भी मां का लाल ।
रंग सकल उड़ जात है, ठोक दबा के ताल ।।
जैसे जल बिन माछरी, तड़प तड़प मरि जात।
प्यासा तड़पत मानुष है,जब सागर बीच जात ।।
काला काजल या कोकिल है,या है काली रात ।
दुर्जन मन नहीं भात है,कहे ऋषि जो बात ।।
✍️ ऋषि तिवारी"ज्योति"
चकरी, दरौली, सिवान (बिहार)