परिंदे


उड़ते परिंदे को देखना, मुझको भा गया,

दूरी को परों से समेटना, मुझको आ गया।


विस्तृत गगन को ,हौसलों से नाप लेता है,

अपने बच्चों को जो, पंखों से ढांप लेता है,

जीवन जीने का सलीका ,मुझे सिखा गया

कर्म पथ पर निरंतर बढ़ना मुझे बता गया।


मुक्त गगन से जो, वापस लौटकर आता है,

तरु शाखाओं पर ही ,बसेरा जो बनाता है,

नीड निर्माण की कला भी, वह सिखा गया 

सांझ ढले घर लौटना भी, मुझे बता गया ।

 स्मिता पांडेय

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