मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै

 ललित निबंध 

वीणा गुप्त 

संसार -एक अथाह, अपरिमित सागर। जिसमें इच्छाओं की उत्ताल तरंगें प्रतिपल तरंगायित हैं।अनवरत सफलता-असफलता के किनारों से टकरातीं,जूझतीं, बनतीं-बिगड़तीं हैं।असफलता, निराशा दे रही है। सफलता, अहंकार का पोषण कर रही है। असफलता,कर्म से परे ले जा रही है। सफलता , अपने को कर्ता-धर्ता मान, नियामक होने का भ्रम उपजा रही है। असफलता मन में हीन भाव भर रही है,

सफलता, स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानने,और दूसरों को तुच्छ समझने का अहं जगा रही है।

       दोनों ही स्थितियां सुख पाने की दिशा में ले जाने में अक्षम हैं, अतः अप्रियऔर अवांछित हैं।तो क्या किया जाए ऐसी स्थिति में? मन तो निरंतर सुख की खोज में जहाज के काग सा व्याकुल है। कैसे मिलेगा सुख? इच्छाओं का बलपूर्वक दमन करने से,या उन्हें उन्मुक्त छोड़ देने से?

         वस्तुतः दोनों ही सुख प्राप्ति की राह नहीं हैं।सुख मिलेगा,संयम से, नियंत्रण से, विवेक पूर्ण स्थिरता से। भटकाव मुक्ति का मार्ग नहीं हो सकता।साधन का औचित्य और साध्य की

श्रेष्ठता ही, सफलता का मार्ग प्रशस्त करती है। इस मार्ग पर चलने के लिए प्राणों में विश्वास और कर्म में समर्पण भरना होगा। समर्पण - समष्टि के प्रति, विश्वास-व्यष्टि के प्रति।हमारा कोई भी कार्य

समष्टि के प्रतिकूल नहीं होना चाहिए। सर्वहित के श्रेयस पथ पर चलते हुए , हमें न तो असफलता निराशा में धकेल पाएगी और न ही सफलता हमारे अहं का पोषण कर पाएगी। 

          कर्मतंत्री के तार जब सहज कसे होंगे, तभी तो मधुर राग झंकृत होगा।मन के भटकाव को स्थायी विराम मिल जाएगा।सुख पाने की चाह में, यहां से वहां तक उड़ान भरती व्याकुलता शमित होगी,और ईश्वर रूपी जहाज का आश्रय ले,वह स्वयं को कृतार्थ समझेगा और उसका कृतज्ञ मन पुकार उठेगा-

मेरो मन अनत कहां सुख पावै।

जैसे उड़ि जहाज को पंछी, फिर जहाज पर आवै।

वीणा गुप्त

नई दिल्ली

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