नाव दुर्घटनाएं

राकेश चंद्रा

प्रत्येक वर्ष हम लोग नदियों में होने वाली नाव दुर्घटनाओं से रूबरू होते हैं। विशेषकर त्योहारों एवं पर्वों के अवसरों पर या फिर नदियों के किनारे आयोजित होने वाले सामाजिक व सांस्कृतिक कार्यक्रमों की समाप्ति के पश्चात घर वापस लौटने की जल्दी में लोग अपनी जान जोखिम में डालने में भी गुरेज नहीं करते हैं। ऐसे अवसरों पर यद्यपि नदियों में नावों की संख्या सामान्य से अधिक ही होती है पर नदी पार करने वालों की संख्या के सापेक्ष कम ही होती है। इसके अतिरिक्त नावों की क्षमता भी सीमित होती है। हमारे देश में यातायात के समानान्तर साधनों यथा ट्रेन, बस, छोटे वाहन आदि में तेजी से वृद्धि हुई है, जबकि पूर्व के साधन यथा नावों की क्षमता एवं गुणवत्ता में न्यून वृद्धि ही हुई है। कई स्थानों पर तो पर्याप्त संख्या में यात्रियों के न मिलने के कारण परम्परागत रूप से आजीविका चलाने वाले नाविकों, मल्लाहों आदि को मजबूरी वश अन्य कोई व्यवसाय चुनना पड़ा है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि नदियों में घाटों के किनारे नावों की संख्या में या तो कमी आयी है अथवा नाममात्र की वृद्धि ही हुई है। विशेष आयोजनों पर यद्यपि स्थानीय प्रशासन द्वारा अतिरिक्त नावों एवं सुरक्षा का विशेष प्रबन्ध किया जाता है पर यात्रियों की बढ़ती हुई संख्या को दृष्टिगत रखते हुए उसे नाकाफी ही माना जा सकता है। ऐसी दशा में नदी को नाव से पार करने वालों के पास संयम से काम लेने का ही विकल्प बचता है। नावों में यात्रियों को ले जाने की क्षमता को दृष्टिगत रखते हुए ही यात्रियों को सवार होना चाहिये- यह मूलमंत्र ही नाव दुर्घटनाओं से रक्षा करने की गारंटी है। ऐसे समय में महिलाओं, बच्चों, वृद्धों एवं अशक्तों को प्राथमिकता देते हुए नावों में सवार होने का अवसर दिया जाना चाहिये। पर्वों, त्योहारों अथवा सामाजिक, सांस्कृतिक आयोजनों के लिये जब हम घर से निकलते हैं तो घर वालों को यह पता होता ही है कि लौटने में देर हो सकती है। लौटने में कुछ शीघ्रता हो जाए तो अच्छी बात है, पर इसके लिये परिस्थितियाँ सामान्य होनी चाहिये। आपाधापी में या अपने प्राणों को संकट में डालकर निर्धारित क्षमता से अधिक संख्या में सवार होकर नावों से यात्रा करना अनावश्यक संकट को आमन्त्रित करने जैसा ही है। पर प्रायः होता ऐसा ही है। घर वापस लौटने की जल्दी में लोग सभी नियमों को भूल जाते हैं और वर्षानुवर्ष नाव दुर्घटनाओं की पुनरावृत्ति होती रहती है। भीड़ को नियन्त्रित कर पाना प्रायः मौके पर तैनात सुरक्षाकर्मियों के लिये भी सम्भव नहीं हो पाता है। ऐसे अवसरों पर बल-प्रयोग के उल्टे परिणाम भी देखने को मिले हैं। उक्त प्रयोजनों के लिये स्वयंसेवी संगठनों की सहायता भी लाभकारी सिद्ध हो सकती है पर इसके लिये आयोजन से पूर्व उक्त संगठनों के पदाधिकारियों से पर्याप्त विचार-विमर्श एवं उनका सम्यक मार्गदर्शन किया जाना आवश्यक होगा। स्वयंसेवकों को पहचान पत्र एवं उनके लिये पहचान-चिन्ह का होना भी नितान्त आवश्यक है जिससे सामान्य जन से परस्पर संवाद में कोई कठिनाई न उत्पन्न होने पाये। सामूहिक प्रयास से भविष्य में होने वाली दुर्घटनाओं को काफी हद तक रोका अवश्य जा सकता है। पर विशेष प्रयास हमको ही करना होगा। इसके लिये हमारी सोच में सकारात्मक परिवर्तन अपेक्षित होगा।

राकेश चंद्रा

610/60, केशव नगर कालोनी

सीतापुर रोड, 

लखनऊ उत्तर-प्रदेश-226020,              

दूरभाष नम्बर : 8400477299, rakeshchandra.81@gmail.com

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