इतवार का दिन था । कवि महोदय सुबह से अपनी मेज कुर्सी पर जमे थे । कई कप चाय पी चुके थे और उठने का नाम नहीं ले रहे थे । कविता को सुबह से पूरा करना चाह रहे थे किन्तु कविता में सही भाव आ ही नहीं रहे थे । बहुत बार काट-छॉंट कर चुके थे ।
पत्नी कई बार खाने के लिये बुला कर थक चुकी थी । उसे रसोई समेट कर महरी के लिए बरतन खाली करना था । तभी चार साल का बेटा पिता के पास आकर गोद में चढ़ने की जिद करने लगा । इसी प्रयास में बच्चे के हाथ से लग कर ग्लास का पानी मेज पर फैल गया । कवि महोदय की सारी खीज झापड़ बन कर नन्हें बालक पर बरस पड़ी ।
पत्नी ने दौड़ कर पुत्र को गोद में उठा लिया और खीज कर बोली] ^^घर में उपस्थित हाड़-मांस के जीवित पात्रों की भावना को हर पल कुचलते रहते हो । यह कहॉं का न्याय है !!**
भावना का यह ज्वार कवि महोदय को स्तब्ध कर गया था ।
नीलम राकेश
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