वीणा गुप्त
शादियों का सीजन था,
बहुत से निमंत्रण आ रहे थे।
उनके वजन को तोल-तोल,
हम उनमें जाने ,न जाने का ,
प्रोग्राम बना रहे थे।
रसना तो हर स्वाद चखना
चाहती थी।
पर जेब की मार ,
स्वाद पर भारी पड़ जाती थी।
तीन इन्वीटेशन एक ही दिन के थे आए।
वैन्यू पास होने के कारण,
वे हमारे मन को भाए।
सोचा एक पंथ तीन काज हो जाएँगे।
एक ही बार तैयार होकर,
तीन शादियांँ निबटा आएँगे।
प्रोग्राम श्रीमती जी को बताया
पहली बार उनसे समर्थन पाया,
तिथि जब देखी,तो वह मुस्कायी,
बोली, बड़ा शुभ दिन है,है भारी साया।
इसी दिन तो तुमने मुझे था पाया।
कैसे भुलक्कड़ हो,
एनीवर्सरी तक भूल जाते हो,
भूलते हो या गिफ्ट देने से घबराते हो?
हमने बिगड़ी बात संभाल उन्हें फुसलाया।
भूले नहीं हैं,इसलिए तो
आज का प्रोग्राम बनाया।
आऊटिंग भी हो जाएगी,
एनीवर्सरी भी मन जाएगी
डिनर भी जायकेदार हो जाएगा,
महज तीन सौ तीन रूपयों में
सारा काम हो जाएगा,
हींग-फिटकरी लगे बिना,
रंग चोखा आएगा।
जेब भी राहत की सांस पाएगी।
जो बचेगा,उससे तुम्हारी साड़ी आएगी।
आखिर वो तिथि आ गई,
जिसका इंतजार था।
श्रीमती जी मेकअप हेतु,पार्लर सिधाईं।
इधर यादें पुरानी 'मूडऑफ' करने
हम तक चली आईं।
सेहरा बंधवाते समय
नहीं जानते थे कि आफ़त घर ला रहे थे।
बैंडवाले शायद इसीलिए,
मातमी धुन बजा रहे थे।
बुझे मन से होने लगे तैयार
पुरानी यादों ने तबियत कर दी थी बेकार।
तभी श्रीमती जी आ गईं होकर तैयार।
हमसे काम्पलीमेंट चाहती थीं।
हमने अभिनय का लिया सहारा,
उनकी ओर प्रशंसा भाव से निहारा।
चले शादी नम्बर एक की ओर,
पहुँचे ही थे ,कि बारात आती दी दिखाई।
मरियल सी घोड़ी पर सवार था वर हातिमताई।
घबराना चाहिए था घोड़ी को,
मगर लड़का घबरा रहा था
फिसल न जाए कहीं,
खुद को घोड़ी पर बार-बार,
जमा रहा था।
मंडप विवाह का खूब ,
जगमगा रहा था।
वधू-पक्ष के पैसों की ,
होली जला रहा था।
जलपान कर,लिफाफा थमा,
चले शादी नंबर दो की ओर।
हमारे दोस्त की बेटी की शादी थी।
तगड़े दाम देकर उन्होंने ,
लड़का खरीदा था।
वर-पक्ष की बांछें खिली थीं
ढेर सा दहेज और
लड़के से अधिक योग्य
लड़की जो मिली थी।
इधर बाप लड़के का,
पब्लिक में दहेज-विरोधी
इमेज बना रहा था।
साधुवाद पा रहा था।
वहाँ से पहुँचे हम
शादी नंबर तीन की ओर
प्रेम विवाह था,
लड़के -लड़की पड़ोसी थे
गली-छज्जे,पार्क और मॉल में
उनके प्यार ने परवान पाया था।
लड़की जिस कॉलेज में थी,
लड़के ने वहीं गुरू-पद पाया था।
लड़की को पढ़ाई से ज्यादा
गुरु पसंद आया था।
लरिकाई का प्रेम साहचर्य गत बन
खूब रंग लाया था।
वैसे भी यह लव की
परफेक्ट सिचुएशन थी।
किसी की न सुनने वाली
नई जैनरेशन थी।
दोनों के पैरेंट्स ने
प्रैक्टिल दिमाग पाया था।
तभी प्रेम कथा का यह
क्लाईमैक्स आया था।
मंडप मस्ती से गहमा रहा था
डी. जे के कनफोड़ू संगीत पर,
सब के साथ वर-वधू का जोड़ा,
भी ठुमके लगा रहा था।
माँ-बाप बलैया ले रहे थे,
मित्र मंडल जाम पर जाम,
चढ़ा रहा था।
वहाँ एक और भी
स्वादिष्ट नजारा था।
भोजन पर कइयों ने,
धावा मारा था।
प्लेट में ढेर खाना ला रहे थे
संजीवनी पर्वत उठाए
हनुमान नजर आ रहे थे।
खूब खा रहे थे,बचे हुए खाने को,
डस्टबिन में खिसका रहे थे।
अजब धक्कम-पेल थी,
शिष्टाचार की धज्जियां उड़ रही थीं।
हम भी लक्ष्य की ओर लपके,
श्रीमती धबरा रही थीं।
हमने उन्हें एक कोने में सहेजा,
और संंधर्ष में लग गए,
थोड़ी देर में खाना ला रहे थे।
सिकंदरी -गर्व से मुस्करा रहे थे।
शादी की रस्में अभी बच गई थीं,
मगर भीड़ थी छंँट गई थी ।
हमने भी जाने का विचार किया,
शगुन का लिफाफा निकाल लिया।
मंच पर देखा तो ,
वर -वधू को नदारद पाया।
इधर उधर नजरें घुमाईं,
तो उन्हें पिताश्री के पास
खड़ा पाया।
बाप से कह रहा था बेटा
डैड! हम तो हो गए,
यहाँ बैठे -बैठे बोर।
ज़रा घूम आएं
रिलेक्स हो जाएँगे।
फेरों तक वापस आ जाएंगे।
पिता ने गाड़ी की चाभी ,
बेटे को थमाई,
हमारे नेत्रों में जिज्ञासा भर आई,
समाधान को हमारे
बोले पिताजी,
हमारे -तुम्हारे जमाने की
शादी नहीं यह भाई,
नए जमाने की,
नई तर्ज की शादी है।
बच्चे वयस्क हैं,
उन्हें पूरी आजादी है।
हम बोले
बात तुम्हारी सेंट -परसेंट सही हैं।
नए युग ने सच ही,
पुराने मूल्यों को नई कसौटी दी है।
हर बात हर समय ,
होती नहीं सही है।
बदले जो साथ समय के
ज़िंदगी , होती वही है।
वीणा गुप्त
नई दिल्ली