कविता


चांद पर भी वह पहुंच गयी , 


बैटी है वो बैटी है । 


जमाने से लड़ी है वो । 


दुनियासे कहाँ डरी है वो । 


यहाँ देखो वहाँ देखो । 


पैरों पे अपने खड़ी है वो । 


जमाने से कहाँ डरी है वो ।


 रानी खुब लड़ी मर्दानी थी वो । भरत मां की ही बैटी थी वो ।


 दुनिया से कहाँ डरी है वो । 


चांद पर भी वह पहुंच गयी ।


 तिरंगा ऊंचाई पर लेकर खडीहैवो , 


हिम्मत पर अपनी अड़ी है वो । पढ़ाई मे भी वह अव्वल रहती है । भाई के साथ भाई बन जाती है । भाई की तरह ही खड़ी है वो ।


 जब वक्त आजाए कोई एसा तो । आगे , केवल आगे बढ़ी है वो ।


 


 डॉ . मुश्ताक़ अहमद शाह । सहज़ "


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