डा.ललित नारायण मिश्रा
वैसे तो सफेद दूब थोड़ा दुर्लभ मानी जाती है लेकिन हमारे जमाने में विद्यार्थियों के लिए इसका महत्व किसी रत्न से कम नहीं था । जिस तरह एकमुखी रुद्राक्ष को योगी ढूंढ़ते हैं और दक्षिणा वर्ती शंख को संसारी ढूंढ़ते हैं उसी तरह श्वेत दूर्वा यानि सफेद दूब को बचपन में हम विद्यार्थी ढूंढा करते थे । बॉटनी के लिहाज़ से 'म्यूटेंट घास' उस जमाने में हम बच्चों के लिए किसी वरदान से कम नहीं होती थी।
घर से विद्यालय लगभग दो किलोमीटर दूर था । कहने को वो प्राइमरी स्कूल था लेकिन इलाके में वही एक स्कूल था जहां से कई पीढ़ी पढ़ के निकली थी। बड़ागांव का यह प्राइमरी स्कूल बताते हैं कि अंग्रेजों के जमाने का था । दीवारें इतनी मोटी थी जैसे किले की दीवार और छत खपड़ैल थी जिसकी ऊंचाई किसी मल्टीस्टोरी के तिमंजिले तक रही होगी । मेरे बाबा जी जो अपने हलके के नामी आल्हा गायक थे वो भी उसी प्राइमरी के पढ़े थे जहां हम पढ़ रहे थे । कोस- कोस की दूरी से झोला टांगे और तख्ती- बुचका लिए लल्लन, बब्बन,मुन्नन जैसों की न जाने कितनी टोली कई गांव से वहां पढ़ने आती थी।
जब ये टोली पढ़ने निकलती थी तो खेतों और खलिहानों के रास्ते स्कूल पहुंचती थी रास्ते में अगर सफेद दूब दिख जाती थी तो टोली उस पर टूट पड़ती थी जिस किसी के हाथ सफेद दूब की एक भी पत्ती लग जाती थी उसको लगता था जैसे कोई निधि मिल गई हो । जिसको नहीं मिलती थी वो इस उम्मीद से आगे बढ़ चलता था कि कहीं आगे उसे भी सफेद दूब मिल जाएगी ।
छुटपन में हम लोग जिस रास्ते से जाते थे वह रेलवे लाइन का किनारा होता था । उसके किनारे अक्सर सफेद दूब मिल ही जाती थी । मेरे गांव गौहन्ना से बड़ागांव प्राइमरी स्कूल तक पहुंचने में नन्हे क़दमों से लगभग आधा घंटा लग ही जाता था फिर रास्ते में मस्ती भी तो होती थी इसलिए कभी कभी उससे ज्यादा समय भी लग जाता था । स्कूल में पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी का अपना मज़ा होता था मज़ा इसलिए कि जब प्रभात फेरी निकलती थी तो पूरा बड़ागांव घूमना पड़ता था ..
झंडा ऊंचा रहे हमारा
विजई विश्व तिरंगा प्यारा..
प्रभात फेरी का ये लंबा रास्ता कभी खलता नहीं था। बड़ागांव के कई व्यापारी थाली में बताशे और लड्डू लिए हम बच्चों का इंतजार करते थे । जैसे ही प्रभात फेरी की अगुवाई करते दखिनपारा वाले गुरु जी यानि हेड मास्टर साहब उस दुकान के सामने पहुंचते फूलों से उनका स्वागत होता और बताशे, लड्डू हम लोगों को मिलते थे। लड्डू और बताशे के चक्कर में प्रभात फेरी बिल्कुल भी नहीं छूटती थी । प्रभात फेरी की लाइन बिगड़ने न पाए इसका विशेष ध्यान 'गौहन्ना वाले मास् साब' को रखना पड़ता था । उनके हाथ की छड़ी को हम लोगों ने कभी जुदा होते नहीं देखा था उनका खौफ इतना था कि बेमन से पढ़ने वाले गोलू भोलू भी रीढ़ की हड्डी सीधी करके 'दो का दो , दो दुन्नी चार' रटते नजर आते थे ।
स्कूल में जूट की टाट- पट्टी किसी गद्दे से कम नहीं होती थी और मास साब की कुर्सी किसी सिंहासन से कम नजर नहीं आती थी । कौन कितना फर्राटे दार पाठ पढ़ के सुना देता था उस बच्चे की धमक पूरी क्लास में रहती थी वही क्लास का मॉनिटर बना दिया जाता था जिसका जलवा ही जलवा होता था ।
पाठ पढ़ते समय जिसकी किताब के बीच सफेद दूब होती थी उसके चेहरे पर थोड़ी कम शिकन होती थी कि या तो उसका नंबर नहीं आयेगा या तो वो पाठ पूरा कर लेगा। वैसे तो 'करेरु वाले मास साब' हमेशा मुस्कराते रहते थे लेकिन जिस बच्चे की कॉपी मंगा ली उसके प्राण सूख जाते थे । कॉपी अच्छी निकल गई तो ये नसीहत जरूर मिलती थी कि नाखून काट के आया करो और आंख में काजल जरुर होना चाहिए । सब बच्चे अगले दिन कजरौटा लगा के चमा चम चमकते हुए आते थे उस दिन पूरी क्लास ही मासूमियत भरी फुलवारी लगती थी ।
एक दिन कॉपी पलटते हुए 'डेलवाभारी के मास साब' ने एक बच्चे की किताब से दसियों सफेद दूब निकाली
पूछा
" ये क्या है " ?
" मास साब सफेद दूब है "
"कॉपी में क्यों रखी" ?
"इससे विद्या माई खूब आतीं हैं "
बच्चे ने असलियत बता दी ।
सुन के गुरु जी हंसने लगे और अपने जमाने की यादों में खो गए । हां हम लोग भी तो यही करते थे।
ये सफेद दूब ही तो सरस्वती साधना का बीज मंत्र रूपी जड़ी थी ।
( लेखक वर्तमान में अपर मेलाधिकारी हरिद्वार हैं )