साहित्यिक पंडानामा


साहित्यिक पंडानामा:८६८


भूपेन्द्र दीक्षित


अवधी का साहित्य समृद्ध परंपरा वाला साहित्य है।अनेक विद्वानों का मत है कि सातवीं शताब्दी से ही इस साहित्य के दर्शन होने लगे थे।


यह भाषा उस समय परिष्कृत न थी।कोई इसे अपभ्रंश मिश्रित भाषा कहता है,कोई अवहट्ट और कोई सधुक्कडी।उसका कोई साहित्यिक रुप नहीं था।


यह तो निश्चित है कि उस समय का साहित्य अवश्य होगा,परंतु समय और परिस्थितियों के वशीभूत होकर विलुप्त हो गया।


उस समय की उपलब्ध साहित्यिक कृतियों में गोरख वाणी,परमाल रासो,चंदायन,मुकरियां ,पहेलियां आदि हैं ।यह अवधी का आरंभिक दौर था।इसे सातवीं शताब्दी से पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ तक माना जाना चाहिए ।


 


हिंदी के प्राचीन काव्य में अवधी का आरंभिक स्वरुप दृष्टि गोचर होता है।प्राकृत पैंगलम में बहुरिया शब्द,पुरातन प्रबंध संग्रह में-आगलि पाछलि पूंछ हलावै,कुबलयमाला में (यह आठवीं शताब्दी की रचना है,जिसे पढकर निर्विवाद रुप से यह सिद्ध हो जाता है कि अवधी उस समय तक बोलचाल की भाषा बन चुकी थी।)यह स्पष्ट दिखती है।


राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है कि अवधी का प्रभाव अनेक कवियों पर दिखता है।


डॉ राम विलास शर्मा ने लिखा है-अवधी की जड हैकोसली समुदाय की गण भाषाएं।


वे तीसरी शताब्दी से अवधी का विकास मानते हैं।


रासो ग्रंथों पर भी अवधी का प्रभाव है। मैथिली अपने मूल रुप में अवधी के अधिक निकट है।


ऐसी महान प्रभविष्णु भाषा को इसका वास्तविक स्थान प्राप्त नहीं हुआ है, क्योंकि इसके अधिकांश लाभार्थियों में किताबों के ढेर पर चढ़ कर फोटो खिंचवाने का शौक अधिक है, अवधी की मुहब्बत कम है।जैसे मरे शेर पर पैर रखकर डरपोक शिकारी फोटो खिंचवाने पर प्रसन्न होता है।इनको अवधी से अपनी रोटी सेंकने से फुरसत नहीं।कुछ तो अरण्यरोदन किया करते हैं-हिंदी का जहाज डूबा जा रहा है।इसे आठवीं अनुसूची में शामिल न होने देना। नहीं तो कयामत आ जाएगी।सब अल्ला को प्यारे हो जाएंगे।


शिक्षक दिवस की शुभकामनाएं, मित्रों!


 साहित्यिक पंडानामा :८६९


 


 एक सज्जन ने व्यंग्य किया कि सिर्फ हंसी उड़ाने से कुछ नहीं होगा और अवधी के विषय में मुझे अपने विचार रखने चाहिए कि यह आगे कैसे बढ़ेगी।सबसे पहले तो यह जानने की आवश्यकता है कि आठवीं अनुसूची है क्या?यह वह अनुसूची है जिसमें भारत की प्रमुख भाषाएं रखी गई हैं और जिनके संरक्षण, संवर्धन, विकास और विभिन्न प्रकार के पुरस्कार आदि देने की जिम्मेदारी सरकार की है। इनके अतिरिक्त समय-समय पर अन्य भाषाओं को भी इसमें शामिल करने की मांग की जाती है। इनमें सर्वाधिक सशक्त दावा अवधी भाषा और भोजपुरी का है। मैं पहले भी लिख चुका हूं कि अवधी एक अत्यंत समृद्ध और सांस्कृतिक भाषा है, जिसका इतिहास खड़ी बोली से भी पुराना है ।अवधी के सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व को कम करने की निरंतर कोशिशें की गई हैं। आज विश्वविद्यालयों में जो अधिकांश हिंदी प्राध्यापक हैं ,वे निरंतर अपने छात्रों को यह शिक्षा दे रहे हैं कि तुलसीदास एक मांगने खाने वाले साहित्यकार थे और रामचरितमानस एक पंडित द्वारा लिखा पंडिताऊ ग्रंथ है और कुछ नहीं। इस तरह से वे अवधी के दाय को नकार देते हैं और नई पीढ़ी के दिमाग में कुछ इस तरह का कचरा भरा जा रहा है कि अवधी कुछ भी नहीं है और अगर अब अवधी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर लिया गया तो हिंदी पर कयामत आ जाएगी ।अब देखना यह है कि किन किन भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग चल रही है-


 


अवधी भाषा


अंगिका भाषा


बुन्देली


बंजारा भाषा


बज्जिका


भोजपुरी भाषा


भोटी भाषा


भोटीया भाषा


छत्तीसगढ़ी भाषा


धक्ती भाषा


अंग्रेज़ी भाषा


गढ़वाली भाषा


गोंडी भाषा


गोजरी भाषा


हो भाषा


कच्छी भाषा


कामतापुरी भाषा


कार्बी भाषा


खासी भाषा


कोडावा भाषा


ककबरक भाषा


कुमाऊँनी भाषा


कुराक भाषा


कुरमाली भाषा


लेप्चा भाषा


लिंबू भाषा


मिज़ो भाषा


मगही


मुंडारी भाषा


नागपुरी भाषा


निकोबारी भाषा


हिमाचली भाषा


पालि भाषा


राजस्थानी भाषा


कोशली / सम्बलपुरी भाषा


शौरसेनी भाषा


सराइकी भाषा


टेनयीडी भाषा


तुलू भाषा


भोजपुरी भाषा


सबसे बड़ी बात तो छूट ही गई। नई पीढ़ी इस आंदोलन के बारे में क्या सोचती है? क्या वह गलत है? हो सकता है उनकी भाषा इतनी अच्छी न हो ,लेकिन वे खरी बात कहते हैं। अवधी को सम्मान मिल जाने से इसका संरक्षण और संवर्धन होने से हिंदी का कुछ बिगड़ता नहीं है ।हिंदी जहां है वहीं रहेगी, लेकिन जिस अवधी को कोई भी नहीं देख पा रहा है, अगर उसको सरकारी संरक्षण मिलता है ,तो निश्चय ही इसका विकास होगा और इसके पुराने ग्रंथ जो नष्ट होने के कगार पर ,हैं उनका संरक्षण होगा और विद्यार्थी उन पर शोध कर सकेंगे नई कृतियां प्रकाश में आएंगी। बहुत सारी श्रेष्ठ कृतियां कोने अतरे में पड़ी हैं उनको लोग सहेजेंगे , पढ़ेंगे और अंततोगत्वा इससे देश का ही लाभ होगा ।जहां अन्य देशों में अपनी प्राचीन भाषाओं को संरक्षित करने के लिए आंदोलन चल रहे हैं, यहां अवधी का नाम लेते ही लोग इस तरह रुदन प्रारंभ कर देते हैं जैसे हिंदी का जहाज डूबा जा रहा है ।मेरी बात व्यंग्य अवश्य लगती है, मित्रों!लेकिन वह सौ टका सत्य है।


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