एक लघु कहानी;
स्वामी दास'
एक समय था कि गया राम निम्न वर्ग का था, किन्तु काफी परिश्रम उपरान्त उसने अपनी आर्थिक स्थिति सुधार ली थी । किंतु धन के आते ही वो अपनी मानवता भूल बैठा था । किसी से भी सीधे मुंह बात नहीं करता था। सभी उसके नौकर, व्यापार में सहायक लोग और पड़ोसी भी उससे दूर ही रहने की सोचते थे। किंतु उसके बिलकुल विपरीत थी उनकी पत्नी, सुशीला। घर के काम करने वाले उसी के कारण ही गया के यहां अब भी टिके हुवे थे, सुशीला हमेशा गया को समझाती रहती थी कि वो सभी से प्रेम से बात करे और गया का सदा एक ही उत्तर होता, “सुशीला, तुम इन लोगो को नही जानती हो इनसे ऐसे ही पेश आना चाहीए ।”
गया को सोने से बहुत लगाव था । वो अपनी पत्नी और पुत्री के लिए तो सोने के गहने लेता ही था, अपने लिए भी सोने का हार, अंगुठियाँ ले रखा था । एक दिन वो थका हुवा घर लौटा दफ्तर से । उसने अपना गौल्ड चैन उतार कर अल्मारी कि जगह अपने कमरे के मेज़ पर ही रख दिया । मेज़ पर पहले से कुछ कागज के टुकड़े पड़े हुवे थे । गया ने उन टुकड़ो को उठा कर कचरे के डब्बे में डाल दिया जिसके साथ सोने का हार भी कचरे में डल गया और फिर वो चैन की नींद सो गया। दुसरे दिन वो सुबह उठा और बरामदे में हमेशा कि तरह जा के बैठ कर अखबार पढ़ने लगा । थोड़ी देर में कचरे वाला बाहर आया और चिल्लाया “कचरा ! गया ने उससे झल्ला के पूछा तुम नए हो ! “जी साहब,” मैं स्वर्ण पास आते हुए उसने कहा। “दूर रहो!” गया उसके उपर चीखा! “नाम स्वर्ण है, और काम....,” कहते हुवे गया घर के अंन्दर चला गया । तब तक सुशीला अंन्दर से घर का सारा कचरा ले कर आ गई और स्वर्ण को दे दिया। वो कचरा लेकर चला गया।
घर के अन्दर गया अपने कमरे मे अपना हार ढूढने लगा। अपनी पत्नी, पुत्री, नोकरों से चीख चीख कर पूछ रहा था कि उसका हार किसने लिया। वो नौकरों पर आरोप लगाने लग जाता है। सभी को बरामदे में खड़ा कर डांट रहा होता है तभी आवाज़ आती है, लीजिए साहब हमे लगा था कि गलती से कचरे में चला गया है ईसलिए तुरन्त आ गए वापस करने,” स्वर्ण ने हार उसकी ओर बढ़ाते हुवे बोला । गया ने स्वर्ण के गन्दे हाथ से, सकुचाते हुवे, अपना हार वापस ले लिया और फिर तिरसकार की आँखों से उसे देखने लगा। स्वर्ण ने गया से कहा, "हम भी पैसे कमाते हैं साहब पर इस तरह नहीं कमाते की साथ लेकर जाएंगे। यह सुनकर गया सोच में पड़ जाता है।
स्वामी दास' (नई दिल्ली)