वो बहुत सुंदर है
सुडौल है..
नै नक्श भी..तो..
उसके ...
बेहद खूबसूरत हैं..!
हाँ सच में...
यही सुनती आई हूँ।
बचपन से..
क्या स्त्री बस..
साँचे में ढली हुई
एक मुर्ति है...?
सुनो!!
जिस्म के..
उसपार भी,
रहती है एक स्त्री!!
क्या किसी ने
उसे भी
समझने की
कोशिश की है??
समझ जाना तो...
लिखना...
कि...
मरती है तिल-तिल
स्त्री...!
खुश रखती है..
औरों को..
स्वयं को ..
जानती तक नही...।
टूटती है हररोज..
सब्र के बाँध के..
भीतर...
फिर बहती है..
अंदर ही अंदर..।
ऊफनती है...
उबलकर ..,
और...फिर...
खो जाती है
स्वयं में...
ढूढ़ती है..
स्वयं का अस्तित्व।
विचारों के सागर..
में गोते लगाती..
पल-पल..
बहती है..
स्त्री !!
स्वयं को...
सिलबट्टे पर..
चंदन की भाँति..
खूब महीन
घिसती है...,
स्त्री..!
वक्त के चक्की में...
क्षण-क्षण..
पिसती है..
स्त्री!!
उपर से
चंचल और
अंदर से संजीदा
होती है...
और भी...
न जाने क्या-क्या
होती है??
स्त्री...
जिस्म के उसपार।
प्रियंका दुबे 'प्रबोधिनी'
गोरखपुर, उत्तर प्रदेश।