झर झर बूँद गिरे आँखों से निर्झर जैसा जीवन बीता।
आशाओं की मृगतृष्णा में स्वप्न लोक का सागर रीता।।
संघर्षों में चलते चलते क्यों अंतस से साहस फिसले,
कर्म मथानी के मथने से भाग्य भरा मक्खन कब निकले,
उलझे उलझे कुछ प्रश्नों पर मौन रही है मन की गीता।
आशाओं की मृगतृष्णा में स्वप्न लोक का सागर रीता।।
सुख जीना है दुख पीना है जब तक सांसें डग भरती है,
सांझ ढले थक हार बैठ कर उम्मीदें सबकी मरती है,
सारी उम्र लड़े जो खुद से उनको भी मरघट ने जीता।
आशाओं की मृगतृष्णा में स्वप्र लोक का सागर रीता।।
भले बुरे का मोल लगाकर अक्सर मति सद्गति चुनती है,
बार बार टूटे संयम को देख देख जलती भुनती है,
अग्नि परीक्षा देती रहती उम्मीदों की नन्हीं सीता।
आशाओं की मृगतृष्णा में स्वप्न लोक का सागर रीता।।
©डॉ.शिवानी सिंह